भारत में हिन्दुओं के चार धाम – बद्रीनाथ, रामेश्वरम्, द्वारिकापुर और जगन्नाथपुरी और आदि गुरु शंकराचार्य
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राष्ट्रीय एकता और सद्भाव के लिए इन चार धामों एवं द्वादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। आदि शंकराचार्य का प्रादुर्भाव केरल में अलवाई नदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में 780 ईस्वी में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था। उनके माता-पिता भगवान शंकर के परम भक्त थे और इसी कारण से उन्होंने पुत्र का नाम शंकर रखा। बालक शंकर की बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण थी और उन्होंने सात वर्ष की आयु में ही वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर लिया।
अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् शंकर सन्यास ग्रहण करना चाहते थे किन्तु सन्यास के लिए उनकी माता उन्हें आज्ञा नहीं दे रही थीं। कहा जाता है कि एक दिन एक दिन माता-पुत्र नदी में स्नान के लिए गए थे तो एक मगरमच्छ ने बालक शंकर के पैर को जकड़ लिया और उन्हें गहरी धारा में खींचने लगा। इस स्थिति को देखकर उनकी माता विकल हो उठीं तब बालक शंकर ने माता से कहा माता यदि आप मुझे सन्यास ग्रहण की अनुमति दे दें तो शायद मुझे जीवनदान मिल जाएगा। विकट परिस्थिति को देखते हुए माता ने उन्हें सन्यास ग्रहण करने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही आश्चर्यजनक रूप से मगरमच्छ ने शंकर के पैर को अपनी जकड़ से मुक्त कर दिया। इस प्रकार से बालक शंकर ने आठ वर्ष की अल्पायु में ही सन्यास ग्रहण कर लिया।
सन्यासी होने के बाद उन्होंने श्री गोविन्द भगवद्पाद से दीक्ष ग्रहण की और गुरु के बताए मार्गदर्शन के अनुसार चल कर साधना करके अल्पकाल में ही योग सिद्धि प्राप्त कर लिया। फिर गुरु की आज्ञानुसार वे काशी चले गए जहाँ पर एक चाण्डाल से उन्हें “अद्वैत” का ज्ञान प्राप्त हुआ।
सन्यासी शंकर समस्त भारत को सनातन धर्म के माध्यम से एकता और सद्भाव के सूत्र में बाँधने के प्रयास में जुट गए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे महान मीमांसक कुमारिल भट्ट से भेंट करने प्रयाग पहुँचे किन्तु जब वे उनके पास पहुँचे तो वे स्वेच्छा से देह-त्याग करने हेतु भूसी की चिता सजा कर उसमें बैठ चुके थे। देहत्याग करने के पूर्व कुमारिल भट्ट ने उनसे कहा कि वे यदि सुधीश्वर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ में जीत लें तो माना जाएगा कि उन्होंने दिग-दिगन्त को जीत लिया है। इस प्रकार से मण्डन मिश्र को हराकर वे अपने उद्देश्य पूर्ति के मार्ग में आगे बढ़ सकते हैं।
मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करने के लिए शंकर महिष्मती पहुँचे। जब वे मिश्र जी का घर तलाश कर रहे थे तो मार्ग में उन्हें कुछ स्त्रियाँ दिखीं जो कि सेविकाएँ प्रतीत होती थीं। सन्यासी शंकर ने उनमें से पूछा, “देवि! इस नगरी में मण्डन मिश्र का निवास स्थान कहाँ पर है?”
इस प्रश्न के उत्तर में उस स्त्री ने कहा -
”स्वत:प्रमाणं परत:प्रमाणं
कीरांगना यत्र गिरागिरन्ति।
द्वारस्थ नीडान्तर-सन्निरुद्धा
जानीहि तन्मंडन पण्डितौक:॥”
जिस घर के द्वार पर पिंजरे में बंद मैनाएँ तर्क कर रही हों कि “वेद स्वयं में ही प्रमाण है या उन्हें अन्य प्रमाण की आवश्यकता है”, वही घर मण्डन मिश्र का आवास है।
अपने प्रश्न का उत्तर विशुद्ध संस्कृत में पाकर सन्यासी को हर्षमिश्रित आश्चर्य हुआ और उन्होंने उत्तर देनेवाली से पूछ लिया, ‘भद्रे! आप का परिचय क्या है?’
उत्तर मिला ‘हम उन्हीं प्रकाण्ड पण्डित मण्डन मिश्र की परिचारिकाएं हैं।’
अस्तु, सन्यासी शंकर ने मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ किया जिसका निर्णायक बनीं मण्डन मिश्र की विदुषी भार्या भारती। जब शंकर ने मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में हरा दिया तो भारती ने कहा कि आपने मेरे पति को अभी आधा ही हराया है, आप पूरी तरह से तब जीतेंगे जब आप मुझे भी शास्त्रार्थ में हरा देंगे। सन्यासी शंकर और भारती के मष्य हुए शास्त्रार्थ के दौरान भारती ने शंकर से “गृहस्थ जीवन के सुख” के सम्बन्ध में प्रश्न किया। शंकर तो सन्यासी थे, गृहस्थ जीवन का उन्हें किंचित मात्र भी अनुभव नहीं था अतः इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन्होंने कुछ समय की मोहलत माँगी। बताया जाता है कि उन्होंने एक व्यक्ति, जिसके प्राण रात्रि में सोते समय निकल गए थे, के शरीर में परकाया प्रवेश विद्या के माध्यम से अपनी जीवात्मा का प्रवेश कराया और कुछ काल तक गृहस्थ जीवन का अनुभव प्राप्त कर पुनः अपने शरीर में वापस आ गए तथा भारती के प्रश्नों का उत्तर देकर उन्हें शास्त्रार्थ में हराया।
शास्त्रार्थ में हार जाने के बाद मण्डन मिश्र, जो कि सन्यास के विरोधी थे, शंकराचार्य का शिष्य बन कर सन्यासी बन गए।
बत्तीस वर्ष की अल्पायु में आदि शंकराचार्य का स्वर्गवास हो गया किन्तु उनके द्वारा किए गए सद्कार्यों ने उन्हें अमर बना दिया।
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राष्ट्रीय एकता और सद्भाव के लिए इन चार धामों एवं द्वादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। आदि शंकराचार्य का प्रादुर्भाव केरल में अलवाई नदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में 780 ईस्वी में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था। उनके माता-पिता भगवान शंकर के परम भक्त थे और इसी कारण से उन्होंने पुत्र का नाम शंकर रखा। बालक शंकर की बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण थी और उन्होंने सात वर्ष की आयु में ही वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर लिया।
अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् शंकर सन्यास ग्रहण करना चाहते थे किन्तु सन्यास के लिए उनकी माता उन्हें आज्ञा नहीं दे रही थीं। कहा जाता है कि एक दिन एक दिन माता-पुत्र नदी में स्नान के लिए गए थे तो एक मगरमच्छ ने बालक शंकर के पैर को जकड़ लिया और उन्हें गहरी धारा में खींचने लगा। इस स्थिति को देखकर उनकी माता विकल हो उठीं तब बालक शंकर ने माता से कहा माता यदि आप मुझे सन्यास ग्रहण की अनुमति दे दें तो शायद मुझे जीवनदान मिल जाएगा। विकट परिस्थिति को देखते हुए माता ने उन्हें सन्यास ग्रहण करने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही आश्चर्यजनक रूप से मगरमच्छ ने शंकर के पैर को अपनी जकड़ से मुक्त कर दिया। इस प्रकार से बालक शंकर ने आठ वर्ष की अल्पायु में ही सन्यास ग्रहण कर लिया।
सन्यासी होने के बाद उन्होंने श्री गोविन्द भगवद्पाद से दीक्ष ग्रहण की और गुरु के बताए मार्गदर्शन के अनुसार चल कर साधना करके अल्पकाल में ही योग सिद्धि प्राप्त कर लिया। फिर गुरु की आज्ञानुसार वे काशी चले गए जहाँ पर एक चाण्डाल से उन्हें “अद्वैत” का ज्ञान प्राप्त हुआ।
सन्यासी शंकर समस्त भारत को सनातन धर्म के माध्यम से एकता और सद्भाव के सूत्र में बाँधने के प्रयास में जुट गए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे महान मीमांसक कुमारिल भट्ट से भेंट करने प्रयाग पहुँचे किन्तु जब वे उनके पास पहुँचे तो वे स्वेच्छा से देह-त्याग करने हेतु भूसी की चिता सजा कर उसमें बैठ चुके थे। देहत्याग करने के पूर्व कुमारिल भट्ट ने उनसे कहा कि वे यदि सुधीश्वर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ में जीत लें तो माना जाएगा कि उन्होंने दिग-दिगन्त को जीत लिया है। इस प्रकार से मण्डन मिश्र को हराकर वे अपने उद्देश्य पूर्ति के मार्ग में आगे बढ़ सकते हैं।
मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करने के लिए शंकर महिष्मती पहुँचे। जब वे मिश्र जी का घर तलाश कर रहे थे तो मार्ग में उन्हें कुछ स्त्रियाँ दिखीं जो कि सेविकाएँ प्रतीत होती थीं। सन्यासी शंकर ने उनमें से पूछा, “देवि! इस नगरी में मण्डन मिश्र का निवास स्थान कहाँ पर है?”
इस प्रश्न के उत्तर में उस स्त्री ने कहा -
”स्वत:प्रमाणं परत:प्रमाणं
कीरांगना यत्र गिरागिरन्ति।
द्वारस्थ नीडान्तर-सन्निरुद्धा
जानीहि तन्मंडन पण्डितौक:॥”
जिस घर के द्वार पर पिंजरे में बंद मैनाएँ तर्क कर रही हों कि “वेद स्वयं में ही प्रमाण है या उन्हें अन्य प्रमाण की आवश्यकता है”, वही घर मण्डन मिश्र का आवास है।
अपने प्रश्न का उत्तर विशुद्ध संस्कृत में पाकर सन्यासी को हर्षमिश्रित आश्चर्य हुआ और उन्होंने उत्तर देनेवाली से पूछ लिया, ‘भद्रे! आप का परिचय क्या है?’
उत्तर मिला ‘हम उन्हीं प्रकाण्ड पण्डित मण्डन मिश्र की परिचारिकाएं हैं।’
अस्तु, सन्यासी शंकर ने मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ किया जिसका निर्णायक बनीं मण्डन मिश्र की विदुषी भार्या भारती। जब शंकर ने मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में हरा दिया तो भारती ने कहा कि आपने मेरे पति को अभी आधा ही हराया है, आप पूरी तरह से तब जीतेंगे जब आप मुझे भी शास्त्रार्थ में हरा देंगे। सन्यासी शंकर और भारती के मष्य हुए शास्त्रार्थ के दौरान भारती ने शंकर से “गृहस्थ जीवन के सुख” के सम्बन्ध में प्रश्न किया। शंकर तो सन्यासी थे, गृहस्थ जीवन का उन्हें किंचित मात्र भी अनुभव नहीं था अतः इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन्होंने कुछ समय की मोहलत माँगी। बताया जाता है कि उन्होंने एक व्यक्ति, जिसके प्राण रात्रि में सोते समय निकल गए थे, के शरीर में परकाया प्रवेश विद्या के माध्यम से अपनी जीवात्मा का प्रवेश कराया और कुछ काल तक गृहस्थ जीवन का अनुभव प्राप्त कर पुनः अपने शरीर में वापस आ गए तथा भारती के प्रश्नों का उत्तर देकर उन्हें शास्त्रार्थ में हराया।
शास्त्रार्थ में हार जाने के बाद मण्डन मिश्र, जो कि सन्यास के विरोधी थे, शंकराचार्य का शिष्य बन कर सन्यासी बन गए।
बत्तीस वर्ष की अल्पायु में आदि शंकराचार्य का स्वर्गवास हो गया किन्तु उनके द्वारा किए गए सद्कार्यों ने उन्हें अमर बना दिया।
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