एक प्रेरक प्रसंग - एक बार भोले शंकर ने दुनिया
पर बड़ा भारी कोप किया। पार्वती को साक्षी बनाकर संकल्प किया कि जब तक यह
दुष्ट दुनिया सुधरेगी नहीं, तब तक शंख नहीं बजाएंगे। शंकर भगवान शंख बजाएं
तो बरसात हो। बरसात रुक गई। अकाल-दर-अकाल पड़े। पानी की बूंद तक नहीं बरसी।
न किसी राजा के क्लेश व सन्ताप की सीमा रही और न किसी रंक की। दुनिया में
त्राहिमाम-त्राहिमाम मच गया। लोगों ने मुंह में तिनका दबाकर खूब ही
प्रायश्चित किया। पर महादेव अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिगे।
संयोग की बात ऐसी बनी कि एक दफा शंकर-पार्वती आकाश में उड़ते जा रहे थे तो उन्होंने एक अजीब ही दृश्य देखा कि एक किसान भरी दोपहरी जलती धूप में खेत की जुताई कर रहा है। पसीने में सराबोर, मगर अपनी धुन में मगन। जमीन पत्थर की तरह सख्त हो गयी थी। फिर भी वह जी-जोड़ मेहनत कर रहा था, जैसे कल-परसों ही बारिश हुई हो। उसकी आंखों और उसके पसीने की बूंदों से ऐसी ही आशा चू रही थी।
भोले शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी बरसे तो बरस बीते। तब यह मूर्ख क्या पागलपन कर रहा है। शंकर पार्वती आकाश से नीचे उतरे। उससे पूछा, “अरे
बावले! क्यों बेकार कष्ट उठा रहा है? सूखी धरती में केवल पसीने बहाने से ही खेती नहीं होती। बरसात का तो अब सपना भी दूभर है।”
किसान ने एक बार आंख उठा कर उनकी ओर देखा और फिर हल चलाते-चलाते ही जवाब दिया, “हां, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। मगर हल चलने का हुनर भूल न जाऊं, इसलिए मैं हर साल इसी तरह पूरी लगन के साथ जुताई करता हूं। जुताई करना भूल गया तो केवल वर्षा से ही गरज सरेगी क्या! मेरी मेहनत का अपना आनंद भी तो है। फ़कत लोभ की खातिर ही मैं खेती नहीं करता।”
किसान के ये बोल कलेजे को पार करते हुए शंकर भगवान के मन में ठेठ गहरे बिंध गए। सोचने लगे,”मुझे भी शंख बजाए बरस बीत गए। कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गया! बस, उससे आगे सोचने की जरूरत ही उन्हें नहीं थी। खेत में खड़े-खड़े ही झोली से शंख निकला और जोर से फूंका। चारो और घटाएं उमड़ पडी। मतवाले हाथिओं के सामान आकाश में गडगडाहट पर गडगडाहट गूंजने लगी और बेशुमार पानी बरसा। बेशुमार जिसके स्वागत में किसान के पसीने की बूंदें पहले ही खेत में मौजूद थीं।
संयोग की बात ऐसी बनी कि एक दफा शंकर-पार्वती आकाश में उड़ते जा रहे थे तो उन्होंने एक अजीब ही दृश्य देखा कि एक किसान भरी दोपहरी जलती धूप में खेत की जुताई कर रहा है। पसीने में सराबोर, मगर अपनी धुन में मगन। जमीन पत्थर की तरह सख्त हो गयी थी। फिर भी वह जी-जोड़ मेहनत कर रहा था, जैसे कल-परसों ही बारिश हुई हो। उसकी आंखों और उसके पसीने की बूंदों से ऐसी ही आशा चू रही थी।
भोले शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी बरसे तो बरस बीते। तब यह मूर्ख क्या पागलपन कर रहा है। शंकर पार्वती आकाश से नीचे उतरे। उससे पूछा, “अरे
बावले! क्यों बेकार कष्ट उठा रहा है? सूखी धरती में केवल पसीने बहाने से ही खेती नहीं होती। बरसात का तो अब सपना भी दूभर है।”
किसान ने एक बार आंख उठा कर उनकी ओर देखा और फिर हल चलाते-चलाते ही जवाब दिया, “हां, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। मगर हल चलने का हुनर भूल न जाऊं, इसलिए मैं हर साल इसी तरह पूरी लगन के साथ जुताई करता हूं। जुताई करना भूल गया तो केवल वर्षा से ही गरज सरेगी क्या! मेरी मेहनत का अपना आनंद भी तो है। फ़कत लोभ की खातिर ही मैं खेती नहीं करता।”
किसान के ये बोल कलेजे को पार करते हुए शंकर भगवान के मन में ठेठ गहरे बिंध गए। सोचने लगे,”मुझे भी शंख बजाए बरस बीत गए। कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गया! बस, उससे आगे सोचने की जरूरत ही उन्हें नहीं थी। खेत में खड़े-खड़े ही झोली से शंख निकला और जोर से फूंका। चारो और घटाएं उमड़ पडी। मतवाले हाथिओं के सामान आकाश में गडगडाहट पर गडगडाहट गूंजने लगी और बेशुमार पानी बरसा। बेशुमार जिसके स्वागत में किसान के पसीने की बूंदें पहले ही खेत में मौजूद थीं।
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