Tuesday, 25 December 2012

गाय और पृथ्वी... 26.12.12

गाय और पृथ्वी
गोमाता समष्टि प्रकृति की पोषक है अर्थात् प्रकृति के आठों अंगों को पोषण प्रदान करती है। ये आठ अंग हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार। इन आठों अंगों की पोषक होने के कारण गाय समष्टि प्रकृति की माता मानी जाती है। जो पोषण प्रदान करे वह माँ है। इस दृष्टि से ‘गो’ प्रकृति की माता सिद्ध होती है। प्रकृति के प्रकाशक, सर्जक तथा नियामक की सृष्टि रचना में गो एक दिव्य एवं महत्वपूर्ण प्राणी है। जिसकी तुलना और किसी से नहींहो सकती। क्योंकि मूल प्रकृति में भी समय-समय पर आने वाली विकृतियों का शमन गोमाता के द्वारा होता है। प्रकृति के सम्पूर्ण अंगों का संरक्षण-संवर्धन एवं पोषण गौ ही कर सकती है। कामधेनु रूपा गो में जीवनी शक्ति-सृजन की अथाह क्षमता है। गाय गोबर से पृथ्वी को, गोमूत्र से जल को श्वाँस से अग्नि को, प्राण शक्ति स्पन्दन से पवन को, हुंकार से आकाश को, दूध-दही एवं घृतसे मन-बुद्धि एवं चित्त को शुद्ध-बुद्ध एवं सशक्त पोषणप्रदान करती है। गौमाता के प्रत्येक अन्तस्थ दिव्य यन्त्रों का सम्बन्ध समष्टिप्रकृति से निरन्तर सजगता पूर्वक बना रहता है। जिससे प्रकृति को सत्वमय जीवनी ऊर्जा मिलती रहती है। अतः गाय कई अर्थो में समष्टि प्रकृति से भी बढ़कर है। जैसेऊपर वर्णन हुआ है कि गाय प्रकृति के आठों अंगों का पोषण करती है। इस अष्टांग प्रकृति से सम्पूर्ण चर-अचरप्राणियों का निर्माण होता है। सूर्य से लेकर चींटी पर्यन्त सभी स्थूल, सूक्ष्म शरीरों का अधिष्ठान ये आठ अंग ही है। अगर प्रकृति के इन आठ अंगो में कोई विकृति आती है तो इसका प्रभाव समस्तशरीरधारी प्राणियों पर पड़ताहै। आठ तो क्या एक-एक भी समष्टि अंग की विकृति का परिणाम समस्त देहधारी प्राणियों को भोगना ही पड़ता है। प्रकृति के इन आठो अंगोंकी विकृतियों को मिटाने का उपाय गाय को छोड़कर दूसरा कोईभी नहीं दिखता है।
अष्टांग प्रकृति की विकृतियों को शमन करने में केवल गोमाता ही सक्षम है-
प्रकृति की विकृतियाँ से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की हानि तथा विकृतियों के शमन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को लाभ होता है। बिना किसी भेदभाव चराचर प्राणियों का हित साधने वाली गाय सर्व-भूत प्राणियों की माँ हैं। ‘‘मातरःसर्वभूतानाम्’’ स्वभाव से ही समष्टि प्रकृति शुद्ध बुद्ध एवं सशक्त है। परन्तु मानवीय प्रमाद से समष्टि प्रकृति में नाना प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती है, इन विकृतियों के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विष निर्मितहो जाता है। यह विष प्राकृतिक आपदाओं के रूप में, मृत्यु के रूप में, रोगों के रूप में, विनाशकारीअस्त्र-शस्त्रों के रूप में, दुर्भावनाओं-दुर्विचारों-दुर्मान्यताओंआदि के रूप में प्रकट होकर परस्पर संघर्ष, कलह एवं सर्व-विनाश का कारण बनता है। यह विष दुर्दमनीयं महाशक्ति है। और ये शक्ति सामूहिक सर्व-विनाश का रूप कभी-कभी ले लेती है। ऐसे अमोघ महाविनाषकारी विष का भी गव्य शमन करने में सक्षम है। पंचगव्य में विष को अमृतके रूप में परिवर्तित करने की अथाह शक्ति है। गौमाता सेप्राप्त पंचगव्य का प्राकृतविज्ञानानुसार विनियोग करने से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, एवं व्यक्तित्व में मिश्रित विनाशकारी विष का सर्व शमन होकर वह अमृत के रूप में हो जाता है, परिणामस्वरूप समष्टि प्रकृति संतुलित एवंसुव्यवस्थित रहती है

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