Sunday 16 December 2012

शिवजी भस्म क्यों रमाते हैं? 17.12.12

शिवजी भस्म क्यों रमाते हैं?

हिंदू धर्म में शिवजी की बड़ी महिमा हैं। शिवजी का न आदि है ना ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र हैं।

शिवजी शरीर पर भस्म क्यों रमा
ते हैं? इस संबंध में धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए।
इस संबंध में एक अन्य तर्क भी है कि शिवजी कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं, जहां का वातावरण अत्यंत ही ठंडा है और भस्म शरीर का आवरण का काम करती हैं। यह वस्त्रों की तरह ही उपयोगी होती है। भस्म बारिक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे सर्दी या गर्मी महसूस नहीं होती हैं। शिवजी का रहन-सहन सन्यासियों सा है। सन्यास का यही अर्थ है कि संसार से अलग प्रकृति के सानिध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। ये भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शामिल है।
हनुमान से सीखें दुश्मनों को दोस्त बनाना....

आपके संघर्ष की यात्रा में आप अकेले नहीं होते हैं, जितने मित्र होते हैं उससे अधिक शत्रु भी जुड़ जाते हैं। लेकिन हर काम को यदि सुंदरता से किया जाए तो एक जगह जाकर शत्रु और मित्र का फर्क ही खत्म हो जाता है।

सुंदरकाण्ड पढ़कर लोगों को यह समझ में आ जाता है कि हनुमानजी कर्म-धर्म, अनुराग-विराग, भक्ति-योग के समन्वय और संतुलन की पाठशाला हैं। इनके जीवन की एक-एक घट
ना यह सिखा देती है कि थोड़ी सी आध्यात्मिकता काफी है बहुत अधिक भौतिकता के लिए। भौतिकता के सही परिणाम पाना हो तो हल्का सा छींटा आध्यात्मिकता का देना पड़ता है।

लंका की ओर सीताजी की खोज में जैसे ही हनुमान उड़े, तुलसीदासजी ने एक दोहा लिखा है -

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।

देवताओं ने पवन पुत्र हनुमानजी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमानजी से कहा आज मुझे तुम्हारे रूप में भोजन प्राप्त हो गया है। हनुमानजी की सफलता की यात्रा में यह एक और बाधा थी। हम जब भी अपने कर्मक्षेत्र में उतरेंगे सुरसा जैसी बाधाएं भी आएंगी। सुरसा को सर्पों की माता कहा गया है।

सर्पिणी का स्वभाव है कि वह अपने ही अण्डे खा जाती है। हनुमानजी ब्रह्मचारी हैं और सामने एक स्त्री। यहां लिखा गया है-

सुनत बचन कह पवनकुमारा।

सुरसा की बात सुनकर तत्काल हनुमानजी ने उत्तर दिया। हनुमानजी समझा रहे हैं कि एक तो समस्या का निराकरण करने में देर न की जाए। पेंडिंग रखना आलस्य का रूप है और पहले सुरसा को शब्दों में समझाते हैं, उसके बाद क्रिया पर उतरते हैं। हमारे लिए यही सबक है कि चरणबद्ध चलें और समस्याओं को निपटाएं।

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