एक पौराणिक कथा....
और गंगा के स्पर्श से जी उठी गाय
प्राचीन काल में सूर्यपुत्र सावर्णी ने पर्वतराज हिमालय पर अनेक वर्षो तक घोर तपस्या की।
और गंगा के स्पर्श से जी उठी गाय
प्राचीन काल में सूर्यपुत्र सावर्णी ने पर्वतराज हिमालय पर अनेक वर्षो तक घोर तपस्या की।
तदनंतर मनुत्व प्राप्त करने के लिए मन और वाक् पर नियंत्रण किया और वैवस्वत मनवंतर के अट्ठाइसवें युग में,
द्वापरांत मं लोक मगंलकारी शिवजी को प्रसन्न करने के लिए एक महायज्ञ करने का संकल्प किया।
मुनि सावर्णी अत्यंत तेजस्वी थें।
यदा-कदा उनके दर्शन के लिए अनेक तपस्वी और मुनि आया करते थे।
उनका आश्रम पुष्पभद्रा नदी के तट पर भद्र नामक वटवृक्ष की छाया में निर्मित था।
एक बार देवदारू वन में निवास करने
वाले कुछ मुनि तीर्थयात्रा करते
हुए सावर्णी के आश्रम में पहुंचे। सावर्णी ने सबका आदर समेत स्वागत किया, अघ्र्य-पाद्य आदि से उनका सत्कार कर कहा कि आप जैसे सर्ववेदविद तपस्वी एवं भक्त मेरे आश्रम में पधारें।
आपके दर्शन-भाग्य से मैं धन्य हो गया।
आपके आगमन का कोई विशेष कारण हो तो मैं जानना चाहूंगा।
इस पर मुनियों ने
विनयपूर्वक निवेदन किया
हे
भास्कर पुत्र! दरअसल, आपके
दर्शन-लाभ से हम धन्य हो गए हैं।
हम लोग महर्षि गौतम के शाप के
वशीभूत हो अपने ज्ञान-विवेक और तपोबल से वंचित हो प्रायश्चित के निमित्त तीर्थटन के लिए जा रहे हैं।
मुनियों की व्यथा सुनकर सावर्णी द्रवित हुए और पूछा,
तपस्वी गौतम ने आप लोगों को क्यों शाप दिया? आपने उनका कैसा अहित किया था, सविस्तार बता दीजिए।
मुनियों ने कहा कि
एक बार इस भूतल पर बारह साल अनावृष्टि के कारण भयंकर अकाल पड़ा। परिणामस्वरूप असंख्य जीवधारियों के साथ औषधियों का भी विनाश होने लगा।
इस संदर्भ में महर्षि गौतम ने जनकल्याण हेतु सत्र यज्ञ का संकल्प किया। पितामह ब्रह्मा गौतम के संकल्प पर हर्षित हुए। उन्होंने चिंतामणि सदृश धान के बीज गौतम को प्रदान किए।
उन बीजों का माहात्म्य सुनिए- यदि प्रात:काल प्रथम पहर में वे बीज बो देते हैं, तो दूसरे पहर में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं।
मध्याह्न् के समय आप धान से अन्न बनाकर भोजन कर सकते हैं।
ब्रह्मा से प्राप्त इस अपूर्व धान की बदौलत महर्षि गौतम यज्ञ में सम्मिलित हुए सभी जनों को समय पर अन्नदान करते
रहे।
यह समाचार दावानल की भांति सर्वत्र फैल गया।
फिर क्या था, क्षुधा पीड़ित मुनि और वनवासी आश्रम में पहुंचने लगे।
हम लोग भी समय पर गौतम ऋषि केआश्रम में पहुंचे और उनका आदर-सत्कार पाकर यज्ञ समाप्ति तक वहीं रह गए।
इस बीच अनावृष्टि समाप्त हो गई। समस्त भूमंडल पर भारी वर्षा हुई। सारी धरती शस्यश्यामला हो, हरीतिमा से लहलहा उठी।
अन्न का अकाल दूर हो गया।
यज्ञ में आहूत ऋत्विज मुनि अब अपने-अपने आश्रमों को लौटने की तैयारी करने लगे।
वनवासी अपने निवास को लौट गए। परंतु गौतम मुनि ने तपस्वियों को थोड़े समय तक और रुक जाने की
अभ्यर्थना की। मुनि-समुदाय मिष्ठान्नों का सेवन करते हुए गौतम का आदर-सत्कार पाकर उनके आश्रम में ही रह गए।
जब गौतम महर्षि द्वारा आयोजित नववर्ष शतक्रतु समाप्त हो चुका, तब कुछ मुनियों ने अपने आश्रमों का संकल्प किया और गौतम से अनुमति मांगी।
परंतु महर्षि गौतम ने उनको अनुमति नहीं दी।
इस पर वे सोचने लगे, हम लोग दुर्भिक्ष के समय
महर्षि गौतम के आश्रम में रहे।
यह उचित भी था, किंतु जब सारा देश सुभिक्षित है,
तब से जबर्दस्ती हम लोगों को रोक रहे हैं।
लगता है कि इनके
भीतर अन्नदान करने का अहंकार हो गया है।
हम लोग केवल इनके आश्रम में रहकर अपना पेट पाल रहे हैं और हमारा अस्तित्व कुछ है ही नहीं।
ये ही क्या एकमात्र तपोबल रखते हैं।
ये ही वेद- विद्याओं और शास्त्रों के ज्ञाता हैं।
इसलिए इनको किसी प्रकार से दोषी ठहराकर इनके
अहंकार का दमन करकेहमें यहां से निकलना चाहिए।
यों विचार करके द्वेषी मुनियों ने एक मायावी गाय की सृष्टि की और उसको गौतम महर्षि के खेत में छोड़ आए।
गाय के गले में एक पगड़ी बंधी हुई थी।
उसके साथ बछड़ा भी था।
गाय धान और गेहूं की फसल चर रही थी।
गौतम महर्षि प्रात:कालीन स्नान- संध्या आदि नित्य नैमित्तिक कृत्यों से निवृत्त होकर अपने आश्रम को लौट रहे थे।
खेत में फसल चरती गाय को देख महर्षि ने हांक दिया,
पर वह हिली-डुली नहीं।
इस पर गौतम नेअपने कमंडल का जल हाथ में डालकर गाय पर छिड़क दिया।
जल का स्पर्श लगते ही गाय ने खेत में ही अपने प्राण त्याग दिए।
गौतम गाय की मृत्यु पर चकित रह गए।
अपने आश्रम को लौटकर ऋषि-मुनियों से
प्रार्थना की, तपस्वियों,
बताइए। मैंने खेत में चरती गाय पर जल छिड़क दिया।
गाय मर गई।
इस गोवध का प्रायश्चित क्या होगा?
तपस्वियों ने कहा कि
आपने इच्छापूर्वक गाय का वध कर डाला।
इसके लिए
प्रायश्चित का कोई विधान नहीं है।
यदि आप पुन: गाय को जीवित देखना चाहते हैं तो एक ही उपाय है कि दिव्य जल से उसे अभिषिक्त करें।
तब तक आप यज्ञ-याज्ञादि संपन्न नहीं कर सकते।
इस जघन्य पाप के
भागी हुए आपके आश्रम में हम एक क्षण भी ठहर नहीं सकते।
यह कहकर हम सब लोग उस साधु पुरुष गौतम के आश्रम से चले गए।
इसके उपरांत गौतम महर्षि ने गंगाजल से गाय को पुनर्जीवित करने
का निश्चय करके
गंगाधर शिव जी के
प्रति घोर तपस्या करने का संकल्प किया।
कैलाश शिखर पर पहुंचकर अनेक वर्षो तक गौतम ने
तपस्या की।
गौतम की तपस्या पर प्रमुदित होकर भक्तवत्सल शिव शंकर ने प्रत्यक्ष होकर पूछा,
महर्षि गौतम,
मैं तुम्हारी तपस्या पर प्रसन्न हूं।
मांगो, तुम कैसा वरदान चाहते हो?
इस पर गौतम ने
भक्तिपूर्वक महेश्वर को प्रणाम करके निवेदन किया,
भगवन, मुझे गंगा प्रदान कीजिए।
तत्काल शिव जी ने अपने जटाजूट से एक जटा निकालकर गौतम के हाथ में दिए और कहा कि तपस्वी, तुम जलसिक्त इस जटा को ले जाकर मृतगाय के स्थल पर रख दो।
वहां पर एक नदी का उद्भव होगा। नदी-जल के स्पर्श मात्र से गाय पुनर्जीवित होगी और तुम गोवध के पाप से
मुक्त हो जाओगे, साथ ही इस घटना के षड्यंत्र का तुम्हें बोध होगा।
महादेव के अदृश्य होते ही गौतम मुनि ने जटा को ले जाकर मृतगाय के स्थल पर रख दिया।
उसी क्षण वहां पर तेज धारवाली गंगा प्रादुर्भूत हुई और गंगाजल के स्पर्श से गाय जीवित हो उठी।
इसके बाद गंगा की वह धारा गौतम के
पीछे बह चली।
गो की रक्षा जिस-धारा से हुई, वह गोदावरी नाम से विख्यात हुई और गौतम इस धारा को लाए थे,
इस कारण वह महानदी 'गौतमी' नाम से भी लोक प्रशस्त हुई।
महेश्वर की महिमा से गौतम को दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ।
मुनियों की प्रवंचना से परिचित हो गौतम ने उन कृतघ्न तपस्वियों को शाप दिया,
तुम लोगों ने अपनी माया-शक्ति से मुझ पर गो-हत्या का आरोप लगाया,
इसलिए आज से तुम लोग अपने ज्ञान से वंचित होकर तपोविहीन बन जाओगे।
"हेसूर्य नंदन सावर्णी जी, महर्षि गौतम के शापग्रस्त हो हम लोग अज्ञानी बन गए।
पुन: उन्होंने हमारी प्रार्थना पर अनुग्रह करके सत्कर्म फल प्राप्त करने के लिए
सह्याद्रि में स्थित भैरव क्षेत्र में जाने का उपाय बताया।
हम लोग वहीं जा रहे हैं।
मध्यमार्ग में आपके दर्शन से हम कृतकृत्य हुए।
अब हमें आज्ञा दीजिए।
यों अपना वृत्तांत सुनाकर मुनि वृंद महर्षि गौतम से विदा लेकर पुण्यप्रदायी भैरव क्षेत्र की ओर निकल पड़े।...
द्वापरांत मं लोक मगंलकारी शिवजी को प्रसन्न करने के लिए एक महायज्ञ करने का संकल्प किया।
मुनि सावर्णी अत्यंत तेजस्वी थें।
यदा-कदा उनके दर्शन के लिए अनेक तपस्वी और मुनि आया करते थे।
उनका आश्रम पुष्पभद्रा नदी के तट पर भद्र नामक वटवृक्ष की छाया में निर्मित था।
एक बार देवदारू वन में निवास करने
वाले कुछ मुनि तीर्थयात्रा करते
हुए सावर्णी के आश्रम में पहुंचे। सावर्णी ने सबका आदर समेत स्वागत किया, अघ्र्य-पाद्य आदि से उनका सत्कार कर कहा कि आप जैसे सर्ववेदविद तपस्वी एवं भक्त मेरे आश्रम में पधारें।
आपके दर्शन-भाग्य से मैं धन्य हो गया।
आपके आगमन का कोई विशेष कारण हो तो मैं जानना चाहूंगा।
इस पर मुनियों ने
विनयपूर्वक निवेदन किया
हे
भास्कर पुत्र! दरअसल, आपके
दर्शन-लाभ से हम धन्य हो गए हैं।
हम लोग महर्षि गौतम के शाप के
वशीभूत हो अपने ज्ञान-विवेक और तपोबल से वंचित हो प्रायश्चित के निमित्त तीर्थटन के लिए जा रहे हैं।
मुनियों की व्यथा सुनकर सावर्णी द्रवित हुए और पूछा,
तपस्वी गौतम ने आप लोगों को क्यों शाप दिया? आपने उनका कैसा अहित किया था, सविस्तार बता दीजिए।
मुनियों ने कहा कि
एक बार इस भूतल पर बारह साल अनावृष्टि के कारण भयंकर अकाल पड़ा। परिणामस्वरूप असंख्य जीवधारियों के साथ औषधियों का भी विनाश होने लगा।
इस संदर्भ में महर्षि गौतम ने जनकल्याण हेतु सत्र यज्ञ का संकल्प किया। पितामह ब्रह्मा गौतम के संकल्प पर हर्षित हुए। उन्होंने चिंतामणि सदृश धान के बीज गौतम को प्रदान किए।
उन बीजों का माहात्म्य सुनिए- यदि प्रात:काल प्रथम पहर में वे बीज बो देते हैं, तो दूसरे पहर में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं।
मध्याह्न् के समय आप धान से अन्न बनाकर भोजन कर सकते हैं।
ब्रह्मा से प्राप्त इस अपूर्व धान की बदौलत महर्षि गौतम यज्ञ में सम्मिलित हुए सभी जनों को समय पर अन्नदान करते
रहे।
यह समाचार दावानल की भांति सर्वत्र फैल गया।
फिर क्या था, क्षुधा पीड़ित मुनि और वनवासी आश्रम में पहुंचने लगे।
हम लोग भी समय पर गौतम ऋषि केआश्रम में पहुंचे और उनका आदर-सत्कार पाकर यज्ञ समाप्ति तक वहीं रह गए।
इस बीच अनावृष्टि समाप्त हो गई। समस्त भूमंडल पर भारी वर्षा हुई। सारी धरती शस्यश्यामला हो, हरीतिमा से लहलहा उठी।
अन्न का अकाल दूर हो गया।
यज्ञ में आहूत ऋत्विज मुनि अब अपने-अपने आश्रमों को लौटने की तैयारी करने लगे।
वनवासी अपने निवास को लौट गए। परंतु गौतम मुनि ने तपस्वियों को थोड़े समय तक और रुक जाने की
अभ्यर्थना की। मुनि-समुदाय मिष्ठान्नों का सेवन करते हुए गौतम का आदर-सत्कार पाकर उनके आश्रम में ही रह गए।
जब गौतम महर्षि द्वारा आयोजित नववर्ष शतक्रतु समाप्त हो चुका, तब कुछ मुनियों ने अपने आश्रमों का संकल्प किया और गौतम से अनुमति मांगी।
परंतु महर्षि गौतम ने उनको अनुमति नहीं दी।
इस पर वे सोचने लगे, हम लोग दुर्भिक्ष के समय
महर्षि गौतम के आश्रम में रहे।
यह उचित भी था, किंतु जब सारा देश सुभिक्षित है,
तब से जबर्दस्ती हम लोगों को रोक रहे हैं।
लगता है कि इनके
भीतर अन्नदान करने का अहंकार हो गया है।
हम लोग केवल इनके आश्रम में रहकर अपना पेट पाल रहे हैं और हमारा अस्तित्व कुछ है ही नहीं।
ये ही क्या एकमात्र तपोबल रखते हैं।
ये ही वेद- विद्याओं और शास्त्रों के ज्ञाता हैं।
इसलिए इनको किसी प्रकार से दोषी ठहराकर इनके
अहंकार का दमन करकेहमें यहां से निकलना चाहिए।
यों विचार करके द्वेषी मुनियों ने एक मायावी गाय की सृष्टि की और उसको गौतम महर्षि के खेत में छोड़ आए।
गाय के गले में एक पगड़ी बंधी हुई थी।
उसके साथ बछड़ा भी था।
गाय धान और गेहूं की फसल चर रही थी।
गौतम महर्षि प्रात:कालीन स्नान- संध्या आदि नित्य नैमित्तिक कृत्यों से निवृत्त होकर अपने आश्रम को लौट रहे थे।
खेत में फसल चरती गाय को देख महर्षि ने हांक दिया,
पर वह हिली-डुली नहीं।
इस पर गौतम नेअपने कमंडल का जल हाथ में डालकर गाय पर छिड़क दिया।
जल का स्पर्श लगते ही गाय ने खेत में ही अपने प्राण त्याग दिए।
गौतम गाय की मृत्यु पर चकित रह गए।
अपने आश्रम को लौटकर ऋषि-मुनियों से
प्रार्थना की, तपस्वियों,
बताइए। मैंने खेत में चरती गाय पर जल छिड़क दिया।
गाय मर गई।
इस गोवध का प्रायश्चित क्या होगा?
तपस्वियों ने कहा कि
आपने इच्छापूर्वक गाय का वध कर डाला।
इसके लिए
प्रायश्चित का कोई विधान नहीं है।
यदि आप पुन: गाय को जीवित देखना चाहते हैं तो एक ही उपाय है कि दिव्य जल से उसे अभिषिक्त करें।
तब तक आप यज्ञ-याज्ञादि संपन्न नहीं कर सकते।
इस जघन्य पाप के
भागी हुए आपके आश्रम में हम एक क्षण भी ठहर नहीं सकते।
यह कहकर हम सब लोग उस साधु पुरुष गौतम के आश्रम से चले गए।
इसके उपरांत गौतम महर्षि ने गंगाजल से गाय को पुनर्जीवित करने
का निश्चय करके
गंगाधर शिव जी के
प्रति घोर तपस्या करने का संकल्प किया।
कैलाश शिखर पर पहुंचकर अनेक वर्षो तक गौतम ने
तपस्या की।
गौतम की तपस्या पर प्रमुदित होकर भक्तवत्सल शिव शंकर ने प्रत्यक्ष होकर पूछा,
महर्षि गौतम,
मैं तुम्हारी तपस्या पर प्रसन्न हूं।
मांगो, तुम कैसा वरदान चाहते हो?
इस पर गौतम ने
भक्तिपूर्वक महेश्वर को प्रणाम करके निवेदन किया,
भगवन, मुझे गंगा प्रदान कीजिए।
तत्काल शिव जी ने अपने जटाजूट से एक जटा निकालकर गौतम के हाथ में दिए और कहा कि तपस्वी, तुम जलसिक्त इस जटा को ले जाकर मृतगाय के स्थल पर रख दो।
वहां पर एक नदी का उद्भव होगा। नदी-जल के स्पर्श मात्र से गाय पुनर्जीवित होगी और तुम गोवध के पाप से
मुक्त हो जाओगे, साथ ही इस घटना के षड्यंत्र का तुम्हें बोध होगा।
महादेव के अदृश्य होते ही गौतम मुनि ने जटा को ले जाकर मृतगाय के स्थल पर रख दिया।
उसी क्षण वहां पर तेज धारवाली गंगा प्रादुर्भूत हुई और गंगाजल के स्पर्श से गाय जीवित हो उठी।
इसके बाद गंगा की वह धारा गौतम के
पीछे बह चली।
गो की रक्षा जिस-धारा से हुई, वह गोदावरी नाम से विख्यात हुई और गौतम इस धारा को लाए थे,
इस कारण वह महानदी 'गौतमी' नाम से भी लोक प्रशस्त हुई।
महेश्वर की महिमा से गौतम को दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ।
मुनियों की प्रवंचना से परिचित हो गौतम ने उन कृतघ्न तपस्वियों को शाप दिया,
तुम लोगों ने अपनी माया-शक्ति से मुझ पर गो-हत्या का आरोप लगाया,
इसलिए आज से तुम लोग अपने ज्ञान से वंचित होकर तपोविहीन बन जाओगे।
"हेसूर्य नंदन सावर्णी जी, महर्षि गौतम के शापग्रस्त हो हम लोग अज्ञानी बन गए।
पुन: उन्होंने हमारी प्रार्थना पर अनुग्रह करके सत्कर्म फल प्राप्त करने के लिए
सह्याद्रि में स्थित भैरव क्षेत्र में जाने का उपाय बताया।
हम लोग वहीं जा रहे हैं।
मध्यमार्ग में आपके दर्शन से हम कृतकृत्य हुए।
अब हमें आज्ञा दीजिए।
यों अपना वृत्तांत सुनाकर मुनि वृंद महर्षि गौतम से विदा लेकर पुण्यप्रदायी भैरव क्षेत्र की ओर निकल पड़े।...
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