Saturday, 1 December 2012

02.12.12

जिस समय महाभारत के युद्ध के अंत में जब दुर्योधन मरणसन्न दशा में पड़ा था तो उसका हितेषी अश्वतथामा ने दुर्योधन का प्रिय कार्य समझकर द्रोपदी के सोये हुए पाँच पुत्रो के सिर काट कर दुर्योधन को भेट किये यह घटना दुर्योधन को अप्रिय लगी.


अपने पुत्रो का निधन सुनकर द्रोपदी अत्यंत दुखी हुई तब अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को लेकर अश्वत्थामा के पीछे पीछे दौड़े और अश्वत्थामा से युध्द करके उसे बंदी बनाकर द्रोपदी के
सामने लाए और चुकि अश्वत्थामा ब्राह्मण थे इसलिए उन्हें मृत्यु दंड नहीं दिया उनके माथे पर जो मणि जन्म से ही थी उसे अर्जुन ने निकल दिया और उनका तिरिस्कार करके छोड दिया इसके बाद भगवान सात्यकि और उद्धव के साथ द्वारिका जाने के लिए वे रथ पर सवार हुए उसी समय उन्होंने देखा कि उत्तरा भय से विहल होकर सामने से दौडी चली आ रही है.


उत्तरा ने कहा - "पाहि पाहि महयोगिन्देवदेव जगत्पते|

नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्यु: परस्परम"


देवाधिदेव ! जगदीश्वर ! आप महायोगी है . आप मेरी रक्षा कीजिये रक्षा कीजिये आपके अतिरिक्त इस लोक में मुझे अभय देने वाला और कोई नहीं है क्योकि यहाँ सभी परस्पर एक दूसरे कि मृत्यु के निमित्त बन रहे है प्रभो! आप सर्व शक्तिमान है यह दहकते हुए लोहे का बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है स्वामिन!यह मुझे भले ही जला दे परन्तु मेरे गर्भ को नष्ट ना करे ऐसी कृपा कीजिये.


भगवान उत्तरा की बात सुनते ही जान गए कि अश्वत्थामा ने पांडवो के वंश को निर्बीज करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है योगेश्वर श्री कृष्ण समस्त प्राणियों के ह्रदय में विराजमान आत्मा है उन्होंने उत्तरा के गर्भ को पांडवो की वंश परंपरा चलाने के लिए अपनी माया के कवच से ढक दिया.

भगवान ने अगूंठे जितना छोटा रूप किया और उत्तरा की सांसो के द्वारा भगवान गर्भ में पहुँच गए. यधपि ब्रह्मास्त्र अमोघ है और उसके निवारण का कोई उपाय भी नहीं है. फिर भी भगवान श्रीकृष्ण के तेज के आगे आकर वह शांत हो गया. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योकि भगवान तो सर्वआश्चर्य है वे ही अपनी निज शक्ति माया से स्वयं अजन्मा होकर भी इस संसार की सृष्टि रक्षा और संहार करते है. आगे चलकर जब उस बालक का जन्म हुआ तो उसका नाम परीक्षित हुआ.

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