गंगा-यमुना
के संगम स्थल प्रयाग को पुराणों में 'तीर्थराज' ( तीर्थों का राजा ) नाम
से अभिहित किया गया है। इस संगम के सम्बन्ध में ॠग्वेद में कहा गया है कि
जहाँ कृष्ण (काले) और श्वेत (स्वच्छ) जल वाली दो सरिताओं का संगम है वहाँ
स्नान करने से मनुष्य स्वर्गारोहण करता है। पुराणोक्ति यह हैं कि प्रजापति
ने आहुति की तीन वेदियाँ बनायी थीं- कुरुक्षेत्र, प्रयाग और गया। इनमें
प्रयाग मध्यम वेदी है। माना जाता है क
ि
यहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती (पाताल से आने वाली) तीन सरिताओं का संगम हुआ
है। पर सरस्वती का कोई बाह्य अस्तित्व दृष्टिगत नहीं होता। पुराणों के
अनुसार जो प्रयाग का दर्शन करके उसका नामोच्चारण करता है तथा वहाँ की
मिट्टी का अपने शरीर पर आलेप करता है वह पापमुक्त हो जाता है। वहाँ स्नान
करने वाला स्वर्ग को प्राप्त होता है तथा देह त्याग करने वाला पुन: संसार
में उत्पन्न नहीं होता। यह केशव को प्रि
प्रयाग की व्युत्पत्ति
प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति वनपर्व* यज धातु से मानी गयी है। उसके अनुसार सर्वात्मा ब्रह्मा ने सर्वप्रथम यहाँ यजन किया था (आहुति दी थी) इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ गया। पुराणों में प्रयागमण्डल, प्रयाग और वेणी अथवा त्रिवेणी की विविध व्याख्याएँ की गयी है। मत्स्य तथा पद्म पुराण के अनुसार प्रयागमण्डल पाँच योजन की परिधि में विस्तृत है और उसमें प्रविष्ट होने पर एक-एक पद पर अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलता है। प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (झूँसी) से वासुकि सेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित है। यह तीनों लोकों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से विख्यात है। पद्म पुराण* के अनुसार 'वेणी' क्षेत्र प्रयाग की सीमा में 20 धनुष तक की दूरी में विस्तृत है। वहाँ प्रयाग, प्रतिष्ठान (झूँसी) तथा अलर्कपुर (अरैल) नाम के तीन कूप हैं। पुराणों* के अनुसार वहाँ तीन अग्निकुण्ड़ भी हैं जिनके मध्य से होकर गंगा बहती है। वनपर्व* तथा मत्स्य पुराण* में बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को 'वेणी' अर्थात दो नदियों (गंगा और यमुना) का संगम स्नान कहते हैं। वनपर्व* तथा अन्य पुराणों में गंगा और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन या कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग।
त्रिवेणी संगम
गंगा यमुना और सरस्वती के त्रिवेणीसंगम को 'ओंकार' नाम से अभिहित किया गया है। 'ओंकार' का 'ओम' परब्रह्म परमेश्वर की ओर रहस्यात्मक संकेत करता है। यही सर्वसुखप्रदायिनी त्रिवेणी का भी सूचक है। ओंकार का अकार सरस्वती का प्रतीक, उकार यमुना का प्रतीक तथा मकार गंगा का प्रतीक है। तीनों क्रमश: प्रद्युम्न, अनिरूद्ध तथा संकर्षण (हरि के व्यूह) को उद्भूत करने वाली है। इस प्रकार इन तीनों का संगम त्रिवेणी नाम से विख्यात है।* नरसिंहपुराण* में विष्णु को प्रयाग में योगमूर्ति के रूप में स्थित बताया गया है। मत्स्य पुराण* के अनुसार रुद्र द्वारा एक कल्प के उपरान्त प्रलय करने पर भी प्रयाग नष्ट नहीं होता। उस समय प्रतिष्ठान के उत्तरी भाग में ब्रह्मा छद्म वेश में, विष्णु वेणी माधव रूप में तथा शिव वट वृक्ष के रूप में आवास करते हैं और सभी देव, गंधर्व, सिद्ध तथा ऋषि पापशक्तियों से प्रयाग मण्डल की रक्षा करते हैं। इसीलिए मत्स्य पुराण* में तीर्थयात्री को प्रयाग जाकर एक मास निवास करने तथा संयमपूर्वक देवताओं और पितरों की पूजा करके अभीष्ट फल प्राप्त करने का विधान है।य (इष्ट) है। इसे त्रिवेणी कहते है।
एक प्राचीन किंवदन्ती के अनुसार प्रयाग का एक नाम इलाबास भी था जो मनु की पुत्री इला के नाम पर था। प्रयाग के निकट भुसी या प्रतिष्ठानपुर में चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी। इसका पहला राजा इला और बुध का पुत्र पुरुरवा एल हुआ। उसी ने अपनी राजधानी को इलाबास की संज्ञा दी जिसका रूपांतर अकबर के समय में इलाहाबाद हो गया।
प्रयाग की व्युत्पत्ति
प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति वनपर्व* यज धातु से मानी गयी है। उसके अनुसार सर्वात्मा ब्रह्मा ने सर्वप्रथम यहाँ यजन किया था (आहुति दी थी) इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ गया। पुराणों में प्रयागमण्डल, प्रयाग और वेणी अथवा त्रिवेणी की विविध व्याख्याएँ की गयी है। मत्स्य तथा पद्म पुराण के अनुसार प्रयागमण्डल पाँच योजन की परिधि में विस्तृत है और उसमें प्रविष्ट होने पर एक-एक पद पर अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलता है। प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (झूँसी) से वासुकि सेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित है। यह तीनों लोकों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से विख्यात है। पद्म पुराण* के अनुसार 'वेणी' क्षेत्र प्रयाग की सीमा में 20 धनुष तक की दूरी में विस्तृत है। वहाँ प्रयाग, प्रतिष्ठान (झूँसी) तथा अलर्कपुर (अरैल) नाम के तीन कूप हैं। पुराणों* के अनुसार वहाँ तीन अग्निकुण्ड़ भी हैं जिनके मध्य से होकर गंगा बहती है। वनपर्व* तथा मत्स्य पुराण* में बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को 'वेणी' अर्थात दो नदियों (गंगा और यमुना) का संगम स्नान कहते हैं। वनपर्व* तथा अन्य पुराणों में गंगा और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन या कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग।
त्रिवेणी संगम
गंगा यमुना और सरस्वती के त्रिवेणीसंगम को 'ओंकार' नाम से अभिहित किया गया है। 'ओंकार' का 'ओम' परब्रह्म परमेश्वर की ओर रहस्यात्मक संकेत करता है। यही सर्वसुखप्रदायिनी त्रिवेणी का भी सूचक है। ओंकार का अकार सरस्वती का प्रतीक, उकार यमुना का प्रतीक तथा मकार गंगा का प्रतीक है। तीनों क्रमश: प्रद्युम्न, अनिरूद्ध तथा संकर्षण (हरि के व्यूह) को उद्भूत करने वाली है। इस प्रकार इन तीनों का संगम त्रिवेणी नाम से विख्यात है।* नरसिंहपुराण* में विष्णु को प्रयाग में योगमूर्ति के रूप में स्थित बताया गया है। मत्स्य पुराण* के अनुसार रुद्र द्वारा एक कल्प के उपरान्त प्रलय करने पर भी प्रयाग नष्ट नहीं होता। उस समय प्रतिष्ठान के उत्तरी भाग में ब्रह्मा छद्म वेश में, विष्णु वेणी माधव रूप में तथा शिव वट वृक्ष के रूप में आवास करते हैं और सभी देव, गंधर्व, सिद्ध तथा ऋषि पापशक्तियों से प्रयाग मण्डल की रक्षा करते हैं। इसीलिए मत्स्य पुराण* में तीर्थयात्री को प्रयाग जाकर एक मास निवास करने तथा संयमपूर्वक देवताओं और पितरों की पूजा करके अभीष्ट फल प्राप्त करने का विधान है।य (इष्ट) है। इसे त्रिवेणी कहते है।
एक प्राचीन किंवदन्ती के अनुसार प्रयाग का एक नाम इलाबास भी था जो मनु की पुत्री इला के नाम पर था। प्रयाग के निकट भुसी या प्रतिष्ठानपुर में चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी। इसका पहला राजा इला और बुध का पुत्र पुरुरवा एल हुआ। उसी ने अपनी राजधानी को इलाबास की संज्ञा दी जिसका रूपांतर अकबर के समय में इलाहाबाद हो गया।
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