Thursday 8 November 2012

तुलसी का दर्शन- पूजन और सेवन का महत्व .. 09.11.2012

तुलसी का दर्शन- पूजन और सेवन का महत्व :-

एक चमत्कारित पेड़ आज भी सबके सामने है फिर देर क्यों आज ही लगाये अपने घर में और दूर भगाए घर से सभी रोगों को और खुशिया लाये फिर से क्यों की इस महीने ऐसा करने से बड़ा ही शुभ फल मिलता है . अधिक जानकारी के लिए पूरा लेख पढ़े .. धन्यवाद् आपका कौशल पाण्डे..

कार्तिक महीने में आरोग्य दायिनी तुलसी पूजन का बड़ा ही महत्व है ,तुलसी मुख्यतः दो प्रकार की होती है।
 1- श्व
ेत तुलसी, 2- कृष्ण तुलसी। इन्हे क्रमशः रामा और श्यामा भी कहते हैं,तुलसी के दर्शन प्रतिदिन करने चाहिए. क्योंकि तुलसी को पाप का नाश करने वाली माना गया है. इसका पूजन करना श्रेष्ठ होता है. इसका पूजन मोक्ष देने वाला होता है. समस्त पूजा तथा धार्मिक कृत्यों में तुलसी का उपयोग किया जाता है. इसके पत्ते से पूजा, व्रत, यज्ञ, जप, होम तथा हवन करने का पुण्य मिलता है. भगवान श्रीकृष्ण को तुलसी से बेहद लगाव था. श्रीकृष्ण जी को यदि तुलसी के पत्ते नहीं चढा़ए गए तो उनका पूजन अधूरा समझा जाता है. कार्तिक माह में विष्णु जी का पूजन तुलसी दल से करने का बडा़ ही माहात्म्य है. कार्तिक माह में यदि तुलसी विवाह किया जाए तो कन्यादान के समान पुण्य की प्राप्ति होती है. हिन्दू धर्म में तुलसी का पौधा भगवान विष्णु को प्रिय व लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। जिससे यह पवित्र और पापनाशिनी मानी गई है। यही कारण है कि धार्मिक दृष्टि से घर में तुलसी के पौधे की पूजा और उपासना हर तरह की दरिद्रता का नाश कर सुख-समृद्ध करने वाली होती है।

तुलसी का वृक्ष औषधीय गुणों से परिपूर्ण माना गया है। इनकी पत्तियों में कीटाणु नष्ट करने का एक विशेष गुण है। इसलिये मन्दिरों में चरणोदक जल में तुलसी की पत्तियां तोड़कर डाली जाती है जिससे जल के सारे कीटाणु नष्ट हो जाये और जल शुद्ध हो जाये।ॐ श्री तुलस्यै विद्महे विष्णु प्रियायै धीमहि, तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।।

जानिए तुलसी के औषधीय गुण :---
भारतीय संस्कृति और धर्म में तुलसी को उसके महान गुणों के कारण ही सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। भारतीय संस्कृति में यह पूज्य है। तुलसी का धार्मिक महत्व तो है ही लेकिन विज्ञान के दृष्टिकोण से तुलसी एक औषधि है। आयुर्वेद में तुलसी को संजीवनी बूटी के समान माना जाता है। तुलसी में कई ऐसे गुण होते हैं जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक है। हृदय रोग हो या सर्दी जुकाम, भारत में सदियों से तुलसी का इस्तेमाल होता चला आ रहा है।
तुलसी एक राम बाण औषधि है। यह प्रकृति की अनूठी देन है। इसकी जड़, तना, पत्तियां तथा बीज उपयोगी होते हैं।तुलसी का सेवन स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।

वेदों में भी तुलसी के गुणों एवं उसकी उपयोगिता का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद (1-24) में वर्णन मिलता है -
सरुपकृत त्वयोषधेसा सरुपमिद कृधि, श्यामा सरुप करणी पृथिव्यां अत्यदभुता। इदम् सुप्रसाधय पुना रुपाणि कल्पय॥
अर्थात् - श्यामा तुलसी मानव के स्वरूप को बनाती है, शरीर के ऊपर के सफेद धब्बे अथवा अन्य प्रकार के त्वचा संबंधी रोगों को नष्ट करने वाली अत्युत्तम महौषधि है।

महर्षि चरक तुलसी के गुणों का वर्णन करते हुए लिखते हैं -
हिक्काकासविषश्वास पार्श्वशूलविनाशनः । पित्तकृत् कफवातघ्न्रः सुरसः पूतिगन्धहाः॥
तुलसी हिचकी, खाँसी, विष, श्वांस रोग और पार्श्व शूल को नष्ट करती है। यह पित्त कारक, कफ-वातनाशक तथा शरीर एवं भोज्य पदार्थों की दुर्गन्ध को दूर करती है।
सूत्र स्थान में वे लिखते हैं - गौरवे शिरसः शूलेपीनसे ह्यहिफेनके । क्रिमिव्याधवपस्मारे घ्राणनाशे प्रेमहेके॥ (2/5)
सिर का भारी होना, पीनस, माथे का दर्द, आधा शीशी, मिरगी, नासिका रोग, कृमि रोग तुलसी से दूर होते हैं।
सुश्रुत महर्षि का मत भी इससे अलग नहीं है। वे लिखते हैं -
कफानिलविषश्वासकास दौर्गन्धनाशनः । पित्तकृतकफवातघ्नः सुरसः समुदाहृतः॥ (सूत्र-46)
तुलसी, कफ, वात, विष विकार, श्वांस-खाँसी और दुर्गन्ध नाशक है। पित्त को उत्पन्न करती है तथा कफ और वायु को विशेष रूप से नष्ट करती है।
भाव प्रकाश में उद्धरण है - तुलसी पित्तकृद वात कृमिर्दोर्गन्धनाशिनी । पार्श्वशूलारतिस्वास-कास हिक्काविकारजित॥
तुलसी पित्तनाशक, वात-कृमि तथा दुर्गन्ध नाशक है। पसली का दर्द, अरुचि, खाँसी, श्वांस, हिचकी आदि विकारों को जीतने वाली है।
आगे वे लिखते हैं - यह हृदय के लिए हितकर, उष्ण तथा अग्निदीपक है एवं कुष्ट-मूत्र विकार, रक्त विकार, पार्श्वशूल को नष्ट करने वाली है। श्वेत तथा कृष्णा तुलसी दोनों ही गुणों में समान हैं
धन्वन्तरि निघण्टुकार के अनुसार तुलसी पत्र अथवा पत्र स्वरस उष्ण, कफ निस्सारक, शीतहर, स्वेदजनन, दीपन, कृमिघ्न, दुर्गन्ध नाशक व प्रतिदूषक होता है। इसके बीज मधुर, स्निग्ध, शीतल एवं मूत्रजनन होते हैं।
शास्र अभिमत है कि तुलसी की जड़ विषम ज्वर को शांत करती है तथा बीज वीर्य को गाढ़ा बनाता है। शान्तिदायक होता है। सूखा पौधा समग्र रूप में चूर्ण रूप में लिए जाने पर यकृतोत्तेजक पाचक रस बढ़ाने का अद्वितीय गुण रखता है।
वनौषधि चन्द्रोदय ग्रंथ के अनुसार आँतों के अन्दर तुलसी पत्र स्वरस का प्रभाव कृमिनाशक एवं वात शामक होता है। वमन बंद होता है और पुराना कब्ज दूर होता है। दाद पर इसका रस चुपड़ने से दाद मिटता है। वृणों को इसके स्वरस से मर्जित करने पर उनमें संक्रमण नहीं बढ़ता तथा वे जल्दी भर जाते हैं। इसके गर्भ निरोधक गुणों की चर्चा भी शास्रों में की गयी है। तुलसी पत्र के काढ़े की एक प्याली यदि प्रतिमास रजोदर्शन के बाद तीन दिन तक नियमित रूप से सेवन की जाए तो गर्भस्थापना नहीं होता।
कुष्ठ का प्रभाव अगर त्वचा के अलावा मांस अस्थियों को भी प्रभावित कर चुका हो तो तुलसी के प्रयोग से उसका भी नाश होता है। एक विद्वान का मत है कि तुलसी में नर व मादा दो जातियाँ होती हैं। नर जाति पुरुष रोगों के लिए तथा मादा जाति स्त्री रोगों में काम में लायी जाती है। यह कहाँ तक सही है व कैसे इन्हें पहचाना जाए, यह शोध का विषय है।

आचार्य प्रियव्रत शर्मा के अनुसार सभी प्रकार के कफ, वात विकारों में तुलसी उपयोगी है। स्थानीय लेप के रूप में व्रणों, शोथ, संधि पीड़ा, मोच आदि में इसका लेप करते हैं। अवसाद एवं लो ब्लड प्रेशर की स्थिति में इसे त्वचा पर मलने से तुरन्त स्नायु संस्थान सक्रिय होता है। शरीर के बाहरी कृमियों में भी इसका लेप करते हैं। उनके अनुसार यह अग्निमंदता, किसी भी प्रकार के उदरशूल तथा आँतों के कृमियों में उपयोगी है। बीज प्रवाहिका में देने पर तुरन्त लाभ करते हैं। यह हृदयोत्तेजक है तथा रक्त विकारों का शोधन करती है। खाँसी, दमा तथा इस कारण मांसपेशियों व रीड़ की हड्डी में जकड़न में इसका स्वरस बहुत उपयोगी है।

आचार्य शर्मा के अनुसार मूत्रदाह व विसर्जन में कठिनाई तथा ब्लैडर की सूजन व पथरी में बीज चूर्ण तुरन्त लाभ करता है। कुष्ठ की यह सर्वश्रेष्ठ औषधि है। यह विषम ज्वर को मिटाती है। किसी भी प्रकार के ज्वर के चक्र को यह तुरंत तोड़ती है। राजयक्ष्मा में भी इसके प्रयोग सफल रहे हैं। जीवनी शक्ति बढ़ाकर यह जीवाणुओं को पलने नहीं देतीं। यह मलेरिया विरोधी है। क्षुप घर के आस-पास लगाने से मच्छर नहीं समीप आते, इसके स्वरस का लेप करने से वे काटते नहीं तथा मुख द्वारा ग्रहण किए जाने पर उन्हें सक्रिय संघटक नष्ट कर देते हैं। बीज रसायन भी हैं तथा दुर्बलता का नाश करते हैं।
डॉ. खोरी के अनुसार श्वेत तुलसी उष्ण व पाचक है। यह बालकों के प्रतिश्याय तथा रोगों में प्रयुक्त होती हैं। काली तुलसी कफ निस्सारक एवं ज्वर नाशक है। सूखे पत्तों का चूर्ण पीनस (साइनोसाइटिस) के लिए प्रयुक्त होता है। तुलसी सिद्ध तेल कर्णशूल मिटाता है।
तुलसी रस में मलेरिया ज्वर के कारण प्रोटोजोआ पेरेसाइट को तथा मच्छरों को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता है। यूरोपियन शोधकर्ता संस्थानों ने श्याम तुलसी को मलेरिया की रामबाण औषधि माना है। पहली बार सन् 1907 में इंग्लैण्ड में इम्पीरियल मेडीकल कान्फ्रेन्स में इस बात का रहस्योद्घाटन किया गया कि काली तुलसी से मलेरिया का उपद्रव बहुत कम हो जाता है। इसके बाद बहुत से अनुसंधान इस क्षेत्र में हुए हैं व बड़े सफल रहे हैं। सभी में पाया गया कि तुलसी पत्रों से स्पर्श की वायु में ऐसे गुण होते हैं कि मच्छर उस पूरे परिसर के आस-पास फटकते भी नहीं।
तुलसी में कुछ ऐसे गुण हैं, जिनके कारण यह शरीर की विद्युतीय संरचना को सीधे प्रभावित करती है। तुलसी के नियमित सेवन से हमारे शरीर में विद्युतीय-शक्ति का प्रवाह नियंत्रित होता है। तुलसी की लकड़ी से बने दानों की माला गले में पहनने से शरीर में विद्युत शक्ति का प्रभाव बढ़ता है तथा जीव कोशों द्वारा उनको धारण करने की सामर्थ्य में वृद्धि होती है। बहुत से रोग इस प्रभाव से आक्रमण करने के पूर्व ही समाप्त हो जाते हैं तथा व्यक्ति की जीवनावधि बढ़ती है।
डॉ. नादकर्णी के अनुसार कमज़ोर व्यक्ति यदि स्वल्प मात्रा में भी तुलसी की जड़ का चूर्ण प्रातः सायं घी के साथ लें तो उनका ओजस् व बल बढ़ता है।
तुलसी के सेवन करते रहने से क्षय रोग के कीटाणु मर जाते हैं, ऐसी घोषणा दिल्ली के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट ने की है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डायरेक्टर विलियम बोरिक का मत है कि महिलाओं के प्राय: सभी रोग इससे ठीक होते हैं। विषैले बैक्टीरिया से बचाव की इसमें अदभुत क्षमता है।
यूनानी मत के अनुसार तुलसी हृदयोत्तेजक, बलवर्धक तथा यकृत आमाशय बलदायक है। यह हृदय को बल देनेवाली होने के कारण अनेक प्रकार के शोथ-विकारजन्य रोगों में आराम देती है। यह शिरःशूल की श्रेष्ठ औषधि है। पत्ते सूँघने से मूर्छा दूर होती है तथा चबाने से दुर्गन्ध। रस कान में टपकाने से कर्णशूल शान्त होता है।

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