Sunday, 20 January 2013

21.01.13


एक बार स्वामी रामतीर्थ कॉलेज से घर आ रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक व्यक्ति को सेब बेचते हुए पाया।
लाल-लाल सेब देखकर उनका मन चंचल हो उठा और वह
सेब वाले के पास पहुंचे और उससे सेबों का दाम पूछने
लगे।
तभी उन्होंने सोचा, 'यह जीभ क्यों पीछे पड़ी है?' वह
दाम पूछकर आगे बढ़ गए। कुछ आगे बढ़कर उन्होंने सोचा कि जब दाम पूछ ही लिए तो उन्हें खरीदने में
क्या हर्ज है। इसी उहापोह में कभी वे आगे बढ़ते और
कभी पीछे जाते। सेब वाला उन्हें देख रहा था।
वह बोला, 'साहब, सेब लेने हैं तो ले लीजिए, इस तरह
बार-बार क्यों आगे पीछे जा रहे हैं?' आखिरकार
उन्होंने कुछ सेब खरीद लिए और घर चल पड़े। घर पहुंचने पर उन्होंने सेबों को एक ओर रखा। लेकिन उनकी नजर
लगातार उन पर पड़ी हुई थी। उन्होंने चाकू लेकर सेब
काटा। सेब काटते ही उनका मन उसे खाने के लिए
लालायित होने लगा, लेकिन वह स्वयं से बोले,
'किसी भी हाल में चंचल मन को इस सेब को खाने से
रोकना है। आखिर मैं भी देखता हूं कि जीभ का स्वाद जीतता है या मेरा मन नियंत्रित होकर
मुझे जिताता है। सेब को [ जारी है ] उन्होंने अपनी नजरों के सामने रखा और स्वयं पर
नियंत्रण रखकर उसे खाने से रोकने लगे। काफी समय
बीत गया। धीरे-धीरे कटा हुआ सेब पीला पड़कर
काला होने लगा लेकिन स्वामी जी ने उसे हाथ तक
नहीं लगाया। फिर वह प्रसन्न होकर स्वयं से बोले,
'आखिर मैंने अपने चंचल मन को नियंत्रित कर ही लिया।' फिर वह दूसरे काम में लग गए।

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