परमात्मा
इस धरती पर करोड़ों- अरबों लोग हैं | प्रार्थना स्थलों की कोई कमी नहीं है |
प्रार्थना -पूजा भी खूब चल रही है , अर्चना की धूप और पूजा के दीये भी खूब
जल रहे हैं | बाहार के मंदिरों में तो खूब पूजा हो रही है पर भीतर के
मंदिर में पूजा का कोई स्वर नहीं है | परमात्मा का घर कोई पत्थर-मिटटी का
बना मंदिर नहीं हो सकता वरन परम चैतन्य का मंदिर ही उसका घर है | उसका घर
या मंदिर मनुष्य के बनाये नहीं बनता क्योंकि बनाने वाले से बनाई गई चीज़
कभी बड़ी नहीं हो सकती | कविता कितनी ही सुन्दर हो , कवि से बड़ी थोड़े ही
हो पायेगी | संगीत कितना ही मधुर हो, संगीतज्ञ से तो बड़ा न हो सकेगा |
बनाने वाला तो ऊपर ही रहेगा क्योंकि बनाने वाले की संभावनाएं अभी शेष हैं,
वह इससे भी श्रेष्ठ बना सकता है | संगीतज्ञ और मधुर संगीत रच सकता है, कवी
और सुन्दर कविता का सृजन कर सकता है | मनुष्य के बनाये मंदिर मनुष्य से
बड़े नहीं है | नहीं, अगर परमात्मा को खोजना है तो मनुष्य को वह मंदिर
खोजना होगा जो स्वयं परमात्मा ने ही बनाया है, जो उसका ही घर है
और वह घर स्वयं मनुष्य ही है | करोड़ों में
कोई
एकाध परमात्मा के घर यानी अपने भीतर की तरफ मुड़ता है | करोड़ों में कोई
एकाध ही इस राज को समझ पता है कि जिसे मैं बाहार खोज रहा हूँ वह मेरे भीतर
है | परमात्मा खोजते तो सभी हैं फिर पाते क्यों नहीं ? कहाँ अवरोध है ?
काम, क्रोध और लोभ - इन तीनों के कारण ही हरिपद को पहचानना मुस्किल हो जाता
है | जो काम, क्रोध और लोभ की विवर्जना कर देता है, जो इन तीनों के पार हो
जाता है, वाही केवल हरिपद को पहचान पाता है | काम यानी कामना पूरी न हो तो
क्रोध उत्पन्न होता है और अगर पूरी हो जाये तो लोभ उत्पन्न होता है | काम
यानी कामना यानी भविष्य और लोभ यानी अतीत यानी जो प्राप्त कर लिया वह कहीं
खो न जाये | इन दोनों के बीच वर्तमान का जो एक क्षण है वाही परमात्मा के
मंदिर का द्वार है | वर्तमान में अवस्थित होते ही ह्रदय के अंतरतम में जो
हरी के पद हैं, परमात्मा के जो चरण कमल हैं वे पा लिए जाते हैं और एक बार
परमात्मा के चरण तक हाथ पहुँच जाये तो फिर परमात्मा ज्यादा दूर नहीं रह
जाता |
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