Sunday, 1 December 2013

02-12-13


योगी नामक व्यक्ति अत्यंत धैर्यवान, ईमानदार और दयालु था। वह सभी की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था। वह गेरुआ वस्त्र नहीं धारण करता था, फिर भी लोग उसे किसी साधु-संत जैसा सम्मान देते थे। उसी शहर में साधुओं की एक टोली आई हुई थी। काफी दिन बीत जाने पर भी जब साधुओं के पास कोई अपनी समस्या लेकर नहीं आया तो उन्हें अत्यंत बेचैनी हुई। वे आपस में बातें करते हुए बोले, 'यह नगर तो बड़ा अजीब है। आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमारे पास अपनी समस्याओं को लेकर लोगों की लंबी कतारें न लगी हों। बड़े अचरज की बात है कि लोग हमें देखकर भी हमारी ओर न आकर आगे बढ़ जाते हैं। आखिर इसका क्या कारण है?' उन्होंने अपने झुंड में शामिल एक युवा साधु अंबुज को इस बात का पता करने के लिए भेजा।

अंबुज को कई बार अपने झुंड में शामिल लोगों के अंधविश्वास व पाखंड को देखकर बुरा लगता था, लेकिन वह सबसे छोटा होने के कारण चुप रह जाता था। अंबुज ने बताया कि इस नगर में योगी नामक व्यक्ति साधु न होकर भी साधु से बढ़कर है। वह समस्याओं के समाधान चुटकियों में कर देता है और अपने कार्य में लगा रहता है। एक दिन योगी को एक रोगी के बारे में पता चला। वह उसकी मदद के लिए चला तो रास्ते में इन्हीं साधुओं की मंडली से टकरा गया। उसे टकराते देखकर सभी साधु उसे घेरकर खड़े हो गए और क्रोधित होकर उसे अपशब्द कहने लगे। यह देखकर योगी बोला, 'आपने गेरुए वस्त्र धारण कर स्वयं को साधु तो घोषित कर दिया लेकिन साधक के गुणों से दूर हैं। साधक तो क्रोध, ईर्ष्या, लोभ से दूर होता है और नि:स्वार्थ भाव से मानव सेवा में लगा रहता है।' सभी साधु दंग रह गए। अंबुज योगी से बहुत प्रभावित हुआ। उसने अपने गेरुए वस्त्र उतारे और उसके साथ रहकर लोगों की सेवा करने लगा।

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