Saturday 17 August 2013

18.08.13


एक पहुंचे हुए महात्मा थे। बड़ी संख्या में लोग उन्हें सुनने आते थे। एक दिन महात्मा जी ने सोचा कि उनके बाद भी धर्मसभा चलती रहे इसलिए क्यों न अपने एक शिष्य को इस विद्या में पारंगत किया जाए। उन्होंने एक शिष्य को इसके लिए प्रशिक्षित किया। अब शिष्य प्रवचन करने लगा। समय बीतता गया। सभा में एक सुंदर युवती आने लगी। वह उपदेश सुनने के साथ प्रार्थना, कीर्तन, नृत्य आदि समारोह में भी सहयोग देती। लोगों को उस युवती का युवक संन्यासी के प्रति लगाव खटकने लगा। एक दिन कुछ लोग महात्मा जी के पास आकर बोले, 'प्रभु, आपका शिष्य भ्रष्ट हो गया है।' महात्मा जी बोले, 'चलो हम स्वयं देखते हैं'। महात्मा जी आए, सभा आरंभ हुई। युवा संन्यासी ने उपदेश शुरू किया। युवती भी आई। उसने भी रोज की तरह सहयोग दिया। सभा के बाद महात्मा जी ने लोगों से पूछा, 'क्या युवक संन्यासी प्रतिदिन यही सब करता है। और कुछ तो नहीं करता?' लोगों ने कहा, 'बस यही सब करता है।' महात्मा जी ने फिर पूछा, 'क्या उसने तुम्हें गलत रास्ते पर चलने का उपदेश दिया? कुछ अधार्मिक करने को कहा?' सभी ने कहा, 'नहीं।' महात्मा जी बोले, 'तो फिर शिकायत क्या है?' कुछ धीमे स्वर उभरे कि 'इस युवती का इस संन्यासी के साथ मिलना-जुलना अनैतिक है'। महात्मा जी ने कहा, 'मुझे दुख है कि तुम्हारे ऊपर उपदेशों का कोई असर नहीं पड़ा। तुमने ये जानने की कोशिश नहीं की वो युवती है कौन। वह इस युवक की बहन है। चूंकि तुम सबकी नीयत ही गलत है इसलिए तुमने उन्हें गलत माना। सभी लज्जित हो गए।.

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