Monday 29 July 2013

30.07.13


हनुमान्जी के चरित्र में एक सूत्र आपको और मिलेगा कि हनुमानजी का रूप सर्वदा बदलता रहता है। वे ही हनुमानजी कहीं लघु हैं, कहीं अति लघु हैं, ये दोनों शब्द भी आपको मिलेंगे। लंका जलाने के पश्चात्-

पूछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता क...े आगे ठाढ़ भयउ कर जोरि।।5/26


यहाँ ‘लघु’ शब्द का प्रयोग है और जब लंका में पैठने लगे तब सुरसा के सामने पहले तो विशाल रूप प्रकट करते हैं, परन्तु जब सुरसा ने सौ योजन का मुँह फैलाया तो हनुमानजी ने लघु नहीं ‘अति लघु’ रूप बनाया—


सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।

कभी लघु बन जाते हैं, कभी अति लघु, कभी विशाल बन जाते हैं और उसमें भी कभी बड़े होते हुए हल्के होते हैं तो कभी भारी भी होते हैं। क्या यह हनुमानजी में कोई जादूगरी है ? समुद्र लाँघने के पूर्व वे विशाल भी बने और उस समय विशाल बनने के साथ-साथ उनका भार इतना था कि लिखा गया—

जोहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेऊ सो गा पाताल तुरंता।
जिस पर्वत पर चरण रखकर हनुमानजी छलाँग लगते हैं, वह पर्वत हनुमानजी के बोझ से तुरन्त पाताल चला गया। यहाँ हनुमानजी विशाल भी हैं और भारी भी और जब लंका जलाने लगे तो विशाल तो इतने बन गये कि—

हरि प्रेरित तेहिं अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।

हनुमानजी ने अपने शरीर को इतना बढ़ा लिया कि वे आकाश को छूने लगे। ऐसा लगा कि समुद्र लाँघते समय भी बड़े बने थे और अब लंका जलाते समय भी बहुत बड़े बन गये, परन्तु नहीं, दोनों में एक अन्तर है कि समुद्र लाँघते समय वे विशाल भी थे और भारी भी, परन्तु लंका जलाते समय विशाल तो थे, परन्तु—
देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।


शरीर जितना ही विशाल है, भार की दृष्टि से वे उतने ही हल्के हैं। इस प्रकार अलग-अलग रूपों में जो हनुमानजी के दर्शन है, इसका तात्त्विक अभिप्राय यह है कि जो चार पक्ष हैं, हनुमानजी इन चारों पक्षों के आचार्य हैं और जिस समय जिस समस्या का समाधान करने के लिए जिस पक्ष को प्रधानता देनी चाहिए, हनुमानजी उसी को प्रधानता देते हैं। अगर गहराई से विचार करके देखें तो चारों योगों में मुख्यता भले ही किसी एक को दी जाय, परन्तु आवश्यकता है इन चारों योगों की या चारों मार्गों के समन्वय की।!!!۞!!!

!!!۞!!! ॥ॐ श्री राम ॥ !!!۞!!!
!!!۞!!! ॥ॐ श्री हनुमते नमः ॥ !!!۞!!!

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