एक संत जी अपनी कुटिया में ध्यान में लीन थे। इस दौरान कोई उनसे मिलने नहीं आता था। मगर इस बात से अनजान एक अतिथि उनसे ध्यान का तरीका सीखने उनके पास आया और उन्हें पुकारने लगा। उसने बताया कि वह जानना चाहता है कि कैसे ध्यानमग्न हुआ जाए। कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वह जोरों से दरवाजा पीटने लगा। उसे लगा शायद अंदर संत न हों। तो उसने जोर से चिल्लाकर पूछा- अंदर कौन है? मगर कोई फायदा नहीं हुआ।
दरवाजा नहीं ही खुला। वह वहीं बैठ गया और प्रतीक्षा करने लगा। शाम के वक्त जब संत जी बाहर निकले तो वह उलाहना देते हुए बोला- मैंने आपको बहुत पुकारा। कई बार आवाजें लगाईं पर आपने तो कोई जवाब ही नहीं दिया। इस पर संत जी मुस्कराते हुए बोले- मैं तो कुटिया के भीतर ही था। पर तुम्हारे प्रश्न 'कौन है' का जवाब खोजने के लिए मुझे अपने भीतर जाना पड़ा। सो उसी में देर हो गई। अतिथि ने कुछ नहीं कहा। तब तक वहां कई लोग जमा हो गए। संत जी का प्रवचन शुरू हो गया। लेकिन थोड़ी ही देर के बाद जबर्दस्त आंधी-तूफान आया। अफरातफरी मच गई।
सब अपनी जान बचाने इधर-उधर दौड़े। वह अतिथि भी भागा पर संत जी को वहीं बैठे देख वापस लौट आया। वह संत के चरण पकड़ कर बोला- इस तूफान में सब भागे पर आप नहीं ऐसा क्यों?
संत ने कहा- जब सब बाहर की ओर भागे मैं भीतर चला गया, अपने ही ध्यान में, वहां कोई तूफान नहीं था। वहां परम शांति थी।
अतिथि ने कहा - प्रभू मुझे ध्यान का तरीका मिल गया।
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