चाय का प्याला
कल्लू चाय के घूँट ले रहा था. कल्लू का पूरा नाम कालूराम है. काम, वह् सब काम कर लेता है, जो आम आदमी नहीं कर पाता है. मकान पर कब्जा करना हो, मकान खाली करवाना हो, चुनाव जीतना या हरवाना, मारा पीटी आदि. कल्लू कोई भी काम कर सकता है बस काम का दाम चुका दो. चाय बढ़िया थी और चाय की चुस्की लेते लेते कल्लू पुरानी यादों में खो गया.
कल्लू शहर के पास के ही एक गाँव का रहने वाला है. गरीब माता पिता की संतान. 8-10 साल की उम्र में ही पिता ने गाँव के ही एक साहूकार के घर पर दिन भर के लिए काम पर रखवा दिया था. महीने की पगार के साथ सुबह की चाय और दोपहर का खाना. सुबह 7 बजे से कल्लू की नौकरी चालू हो जाती. साहूकार के घर में उनकी पत्नी चाय बनाती. घर के सभी लोगों को चाय देने के पश्चात जरा सी चाय में और पानी डाल कर, उबाल कर, छान कर कल्लू को दे देती. शुरू शुरू में तो कल्लू कुछ समझ नहीं पाया पर बाद में उसे यह सब बहुत ही बुरा लगने लगा. दोपहर के भोजन में भी उसे बचा खुचा या बासा खाना खाने को मिलता वह् भी पेट भर नहीं. सभी बच्चे स्कूल जाते और यह सब देख् कर कल्लू की भी इच्छा स्कूल जाने की होती पर मन मसोस कर रह जाता.
दिन गुजरते गए और कल्लू जवान हो गया. उसे साहूकार की नौकरी अब अच्छी नहीं लगती पर पिता की आर्थिक स्थिति को देखकर चुप रहता. एक दिन साहूकार की जवान बेटी से 5-10 मिनट बात क्या कर ली, तूफान आ गया. पता नहीं साहूकार और उसकी पत्नी ने क्या क्या बोला. वह् साहूकार की बेटी, जिसे उसने बड़ा होते देखा था, को अपनी बहिन मानता था. उसके बाद कल्लू वापस साहुकार के घर दुबारा नहीं गया. साहूकार का बुलावा आया. पिता ने भी जोर डाला.पर कल्लू का मन खट्टा हो गया.
कल्लू भाग कर वह् शहर आ गया. शरीर से बलिष्ट, अच्छी कद काठी और साँवला रंग. हम्माली करने लगा. मेहनती था और दिमाग का होशियार भी. धीरे धीरे जिसमे पैसा मिले वह् सभी काम करने लगा. अच्छा पैसा बना लिया. मकान, कार, सुख सुविधा की सभी सामग्री जुटा ली. गाँव से परिवार को बुला लिया, शादी कर ली और बच्चे शहर के अच्छे स्कूल में शिक्षा पाने लगे.
सब कुछ होने के बाद भी कल्लू के मन में हमेशा एक दर्द रहता है कि काश उसे भी साहूकार के घर में अच्छा माहौल मिला होता तो वह् भी पढ़ लिख कर अच्छा काम कर रहा होता.
कल्लू चाय के घूँट ले रहा था. कल्लू का पूरा नाम कालूराम है. काम, वह् सब काम कर लेता है, जो आम आदमी नहीं कर पाता है. मकान पर कब्जा करना हो, मकान खाली करवाना हो, चुनाव जीतना या हरवाना, मारा पीटी आदि. कल्लू कोई भी काम कर सकता है बस काम का दाम चुका दो. चाय बढ़िया थी और चाय की चुस्की लेते लेते कल्लू पुरानी यादों में खो गया.
कल्लू शहर के पास के ही एक गाँव का रहने वाला है. गरीब माता पिता की संतान. 8-10 साल की उम्र में ही पिता ने गाँव के ही एक साहूकार के घर पर दिन भर के लिए काम पर रखवा दिया था. महीने की पगार के साथ सुबह की चाय और दोपहर का खाना. सुबह 7 बजे से कल्लू की नौकरी चालू हो जाती. साहूकार के घर में उनकी पत्नी चाय बनाती. घर के सभी लोगों को चाय देने के पश्चात जरा सी चाय में और पानी डाल कर, उबाल कर, छान कर कल्लू को दे देती. शुरू शुरू में तो कल्लू कुछ समझ नहीं पाया पर बाद में उसे यह सब बहुत ही बुरा लगने लगा. दोपहर के भोजन में भी उसे बचा खुचा या बासा खाना खाने को मिलता वह् भी पेट भर नहीं. सभी बच्चे स्कूल जाते और यह सब देख् कर कल्लू की भी इच्छा स्कूल जाने की होती पर मन मसोस कर रह जाता.
दिन गुजरते गए और कल्लू जवान हो गया. उसे साहूकार की नौकरी अब अच्छी नहीं लगती पर पिता की आर्थिक स्थिति को देखकर चुप रहता. एक दिन साहूकार की जवान बेटी से 5-10 मिनट बात क्या कर ली, तूफान आ गया. पता नहीं साहूकार और उसकी पत्नी ने क्या क्या बोला. वह् साहूकार की बेटी, जिसे उसने बड़ा होते देखा था, को अपनी बहिन मानता था. उसके बाद कल्लू वापस साहुकार के घर दुबारा नहीं गया. साहूकार का बुलावा आया. पिता ने भी जोर डाला.पर कल्लू का मन खट्टा हो गया.
कल्लू भाग कर वह् शहर आ गया. शरीर से बलिष्ट, अच्छी कद काठी और साँवला रंग. हम्माली करने लगा. मेहनती था और दिमाग का होशियार भी. धीरे धीरे जिसमे पैसा मिले वह् सभी काम करने लगा. अच्छा पैसा बना लिया. मकान, कार, सुख सुविधा की सभी सामग्री जुटा ली. गाँव से परिवार को बुला लिया, शादी कर ली और बच्चे शहर के अच्छे स्कूल में शिक्षा पाने लगे.
सब कुछ होने के बाद भी कल्लू के मन में हमेशा एक दर्द रहता है कि काश उसे भी साहूकार के घर में अच्छा माहौल मिला होता तो वह् भी पढ़ लिख कर अच्छा काम कर रहा होता.
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