Thursday 7 February 2013

08.02.13


एक प्रेरक कहानी :

गुरु-शिष्य भ्रमण करते हुए एक वन से गुजर रहे थे। कुछ दूर से एक झरने का पानी बह कर आ रहा था। गुरूजी को प्यास लगी। उन्होंने शिष्य को कमण्डल में पानी भर कर लाने के लिए कहा।
शिष्य ने पानी के पास पहुँच कर देखा कि वहां से अभी-अभी बैल गाड़ियाँ निकलीं हैं, जिससे वहां का पानी गंदा हो गया था और सूखे पत्ते तैर रहे थे।

शिष्य ने आकर गुरूजी से कहा- " कहीं और से पानी का प्रबंध करना होगा।" लेकिन गुरूजी ने शिष्य को बार-बार वहीं से पानी लाने को कहा। हर बार शिष्य देखता कि पानी गंदा था फिर भी ....। पांचवी बार भी जब वहीं से पानी लाने को कहा गया, तब शिष्य के चेहरे पर असंतोष और खीज के भाव थे।

शिष्य गुरूजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था, अत: वह फिर वहां गया। इस बार जाने पर शिष्य ने देखा कि झरने का जल शांत एवं स्वच्छ था। वह प्रसन्नता पूर्वक गुरूजी के पीने के लिए पात्र में जल भर लाया।

शिष्य के हाथ से जल ग्रहण करते हुए गुरूजी मुस्कराए और शिष्य को समझाया - " वत्स ! हमारे मन रूपी जल को भी प्रायः कुविचारों के बैल दूषित करते रहते हैं। अत:हमें अपने मन के झरने के शांत होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए, तभी मन में स्वच्छ विचार आयेंगे। उद्वेलित मन से कभी कोइ निर्णय नहीं लेना चाहिए।

कथा मर्म : शांत मन ही स्वच्छ हो सकता है, सो कभी विचार रूपी बैलो को हावी न होने दे अपने मन पर । निष्काम भाव से बस कर्म करते रहे, मन को गंदा होने से बचाते रहे ।

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