Monday, 4 February 2013

05.02.13


एक युवा ब्रह्मचारी देश- विदेश का भ्रमण कर और वहां के ग्रंथों का अध्ययन कर जब अपने देश
लौटा,तो सबके सामने इस बात की शेखी बघारने
लगा कि उसके समान अधिक ज्ञानी विद्वान और कोई नहीं! उसके पास
जो भी व्यक्ति जाता, वह उससे प्रश्न
किया करता कि क्या उसने उससे बढ़कर कोई विद्वान देखा है? बात बुद्ध के कानों तक
भी जा पहुंची। वह ब्राह्मण वेश में उसके पास गए। ब्रह्मचारी ने
उनसे प्रश्न किया -कौन हो तुम ब्राह्मण?
बुद्ध ने कहा- अपनी देह और मन पर
जिसका पूर्ण अधिकार है मैं ऐसा एक तुच्छ
मनुष्य हूं! युवा ब्रह्मचारी बोला-
भलीभांति स्पष्ट करो मुझे कुछ समझ नहीं आया। बुद्ध ने कहा- जिस तरह कुम्हार घड़े
बनाता है, नाविक नौका चलाता है
धनुर्धारी बाण चलाता है, गायक गीत गाता है,
वादक वाद्य बजाता है और विद्वान वाद-
विवाद में भाग लेता है, उसी तरह ज्ञानी पुरुष
स्वयं पर ही शासन करता है। ब्रह्मचारी ने पुन: प्रश्न किया- ज्ञानी पुरुष भला स्वयं पर शासन
कैसे करता है? बुद्ध ने समझाया-
लोगों द्वारा स्तुति-सुमनों की वर्षा किए
जाने पर अथवा निंदा के अंगार बरसाने पर
भी ज्ञानी पुरुष का मन शांत ही रहता है। उसका मन सदाचार, दया और विश्व-प्रेम पर
ही केंद्रित रहता है इसलिए
प्रशंसा या निंदा का उस पर कोई भी असर
नहीं पड़ता! यही वजह है कि उसके चित्त
सागर में शांति की धारा बहती रहती है। उस
ब्रह्मचारी ने जब स्वयं के बारे में सोचा तो उसे आत्मग्लानि हुई और वह बुद्ध के कदमों पर
गिरकर बोला- स्वामी! अब तक मैं भूल में था। मैं
स्वयं को ही ज्ञानी समझता था पर आज मैंने
जाना कि मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है। बुद्ध
बोले- हां, ज्ञान का पहला पाठ आज
ही तुम्हारी समझ में आया है बंधु! तुम मेरे साथ मठ में चलो और इसके आगे के पाठों का अध्ययन
वहीं करना। बुद्ध उसे अपने साथ ले गए। वह
उनका शिष्य बन गया...

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