Thursday, 28 February 2013

01.03.13


निबंध-

प्राथमिक पाठशाला की एक शिक्षिका ने अपने छात्रों को एक निबंध लिखने को कहा. विषय था "भगवान से आप क्या बनने का वरदान मांगेंगे" इस निबंध ने उस क्लास टीचर को इतना भावुक कर दिया कि रोते-रोते उस निबंध को लेकर वह घर आ गयी. पति ने रोने का कारण पूछा तो उसने जवाब दिया इसे पढ़ें, यह मेरे छात्रों में से एक ने यह निबंध लिखा है..

निबंध कुछ इस प्रकार था:-

हे भगवान, मुझे एक टीवी बना दो क्योंकि तब मैं अपने परिवार में ख़ास जगह ले पाऊंगा और बिना रूकावट या सवालों के मुझे ध्यान से सुना व देखा जायेगा. जब मुझे कुछ होगा तब टीवी खराब की खलबली पूरे परिवार में सबको होगी और मुझे जल्द से जल्द सब ठीक हालत में देखने के लिए लालायित रहेंगे. वैसे मम्मी पापा के पास स्कूल और ऑफिस में बिलकुल टाइम नहीं है लेकिन मैं जब अस्वस्थ्य रहूँगा तब मम्मी का चपरासी और पापा के ऑफिस का स्टाफ मुझे सुधरवाने के लिए दौड़ कर आएगा. दादा का पापा के पास कई बार फोन चला जायेगा कि टीवी जल्दी सुधरवा दो दादी का फेवरेट सीरियल आने वाला हे. मेरी दीदी भी मेरे साथ रहने के लिए के लिए हमेशा सबसे लडती रहेगी. पापा जब भी ऑफिस से थक कर आएँगे मेरे साथ ही अपना समय गुजारेंगे. मुझे लगता है कि परिवार का हर सदस्य कुछ न कुछ समय मेरे साथ अवश्य गुजारना चाहेगा मैं सबकी आँखों में कभी ख़ुशी के तो कभी गम के आंसू देख पाऊंगा. आज मैं "स्कूल का बच्चा" मशीन बन गया हूँ. स्कूल में पढ़ाई घर में होमवर्क और ट्यूशन पे ट्यूशन ना तो मैं खेल पाता हूँ न ही पिकनिक जा पाता हूँ इसलिए भगवान मैं सिर्फ एक टीवी की तरह रहना चाहता हूँ, कम से कम रोज़ मैं अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ अपना बेशकीमती समय तो गुजार पाऊंगा.

पति ने पूरा निबंध ध्यान से पढ़ा और अपनी राय जाहिर की. हे भगवान ! कितने जल्लाद होंगे इस गरीब बच्चे के माता पिता !

पत्नी ने पति को करुण आँखों से देखा और कहा,...... यह निबंध हमारे बेटे ने लिखा है !!

Wednesday, 27 February 2013

28.02.13


एक आदमी जब पैदा होता है तो उस समय जब
उसकी जीवन उर्जा बड़ी संवेदनशील होती है
तो उसे एक स्त्री ही संभालती है…



….
वो है उसकी माँ.
.…

फिर जब थोडा सा बड़ा होता है (बैठने लायक)
तो वहां भी एक लड़की ही मिलती है
जो उसकी देखरेख करती है उसके साथ खेलती है
….
उसका मन बहलाती है……. जब तक
की वो इतना बड़ा नहीं हो जाता की बाहर
के संसार में अपने दोस्त बना सके…

..
….
वो है उसकी बहिन……
……
फिर जब वो स्कूल जाता है तो वहां फिर एक
महिला है जो उसकी सहायता
करती है….. चीज़ों को समझने में………… उसे
सहारा देती है, उसकी कमजोरियों को दूर करने
में….. और उसको एक अच्छा इंसान बनाने
में…

……
वो है उसकी अध्यापिका…
…….…
फिर जब वो बड़ा होता है……….. और जब जीवन
से उसका संघर्ष शुरू
होता है…. जब भी वो संघर्ष में वो कमजोर
हो जाता है…..
तो एक लड़की ही उसको साहस देती है


वो है उसकी प्रेमिका
(सामान्यत:)

……. .
जब आदमी को जरूरत होती है………. साथ
की अपनी अभिव्यक्ति प्रकट
करने के लिए …… अपना दुःख और सुख बाटने
के लिए फिर एक लड़की वहां
होती है…

…..
वो है उसकी पत्नी……
…..
फिर जब जीवन के संघर्ष और रोज
की मुश्किलों का
सामना करते करते आदमी कठोर होने लगता है
……..
तब उसे निर्मल बनाने वाली भी एक
लड़की ही होती है…

…..
और वो है उसकी बेटी.……
……
और जब आदमी की जीवन यात्रा ख़त्म होगी तब
फिर एक स्त्रीलिंग ही होगी जिससे उसका अंतिम
मिलन होगा ….. जिसमे वो समां कर
पूरा हो जायेगा…
....
...
… और वो होगी मात्रभूमि…
…..…
.
.
.
.
याद रखें अगर आप मर्द हैं तो सम्मान दें हर
महिला को…
……

……
जो हर पल आपके साथ किसी न किसी रूप में है…
…….
और अगर आप महिला हैं तो गर्व करें अपने
महिला होने पर.

...

Tuesday, 26 February 2013

27.02.13


भगवान् का पता!
एक बार एक फ़क़ीर भीख मांगने के लिए मस्जिद के बाहर बैठा हुआ
होता है।
सब नमाज़ी उस से आँख बचा कर चले गए और उसे कुछ नहीं मिला।
वो फिर चर्च गया।
फिर मंदिर और फिर गुरुद्वारे।
लेकिन उसको किसी ने कुछ नहीं दिया।
आखिरी में वह हार कर एक शराब की दुकान के बहार आ कर बैठ
गया।
उस शराब की दुकान से जो भी निकलता उसके कटोरे में कुछ न कुछ
डाल देता।
कुछ देर बाद उसका कटोरा नोटों से भर गया तो नोटों से
भरा कटोरा देख कर फ़क़ीर ने आसमान की तरफ देखा और बोला।
"वाह रे प्रभु" रहते कहाँ हो और पता कहाँ का देते हो...!

Monday, 25 February 2013

26 .02.13


प्राचीन काल में एक राजा का यह नियम था कि वह अनगिनत संन्यासियों को दान देने के बाद ही भोजन ग्रहण करता था.

एक दिन नियत समय से पहले ही एक संन्यासी अपना छोटा सा भिक्षापात्र लेकर द्वार पर आ खड़ा हुआ. उसने राजा से कहा – “राजन, यदि संभव हो तो मेरे इस छोटे से पात्र में भी कुछ भी डाल दें.”

याचक के यह शब्द राजा को खटक गए पर वह उसे कुछ भी नहीं कह सकता था. उसने अपने सेवकों से कहा कि उस पात्र को सोने के सिक्कों से भर दिया जाय.

जैसे ही उस पात्र में सोने के सिक्के डाले गए, वे उसमें गिरकर गायब हो गए. ऐसा बार-बार हुआ. शाम तक राजा का पूरा खजाना खाली हो गया पर वह पात्र रिक्त ही रहा.

अंततः राजा ही याचक स्वरूप हाथ जोड़े आया और उसने संन्यासी से पूछा – “मुझे क्षमा कर दें, मैं समझता था कि मेरे द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं जा सकता. अब कृपया इस पात्र का रहस्य भी मुझे बताएं. यह कभी भरता क्यों नहीं?”

संन्यासी ने कहा – “यह पात्र मनुष्य के ह्रदय से बना है. इस संसार की कोई वस्तु मनुष्य के ह्रदय को नहीं भर सकती. मनुष्य कितना ही नाम, यश, शक्ति, धन, सौंदर्य, और सुख अर्जित कर ले पर यह हमेशा और की ही मांग करता है. केवल ईश्वरीय प्रेम ही इसे भरने में सक्षम है.”

Sunday, 24 February 2013

25.02.13


Jai $hree Radhe Kri$hna ..
Radhe Radhe..

कर्म के आगे खुद भगवान भी झुके......

एक बार की बात है, भगवान और देवराज इंद्र में इस बात पर बहस छिड़ गई कि दोनों में से श्रेष्ठ कौन हैं? उनका विवाद बढ़ गया तब इंद्र ने यह सोचकर वर्षा करनी बंद कर दी कि यदि वे बारह वर्षों तक पृथ्वी पर वर्षा नहीं करेंगे तो भगवान पृथ्वीवासियों को कैसे जीवित रख पाएंगे।

इंद्र की आज्ञा से मेघों ने जल बरसाना बंद कर दिया। किंतु किसानों ने सोचा कि यदि यह लड़ाई बारह वर्षों तक चलती रही तो वे अपना कर्म ही भूल बैठेंगे। उनके पुत्र भी सब कुछ भूल जाएंगे। अतः उन्हें अपना कर्म करते रहना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने कृषि कार्य शुरू कर दिया। वे अपने-अपने खेत जोतने लगे।

तभी मिट्टी के नीचे छिपा कर मेढ़क बाहर आया और किसानों को खेती करते देख आश्चर्यचकित होकर बोला- “इंद्र देव और भगवान में श्रेष्ठता की लड़ाई छिड़ी हुई है। इसी कारण इंद्र देव ने बारह वर्षों तक पृथ्वी पर वर्षा न करने का निश्चय किया है। फिर भी आप लोग खेत जोत रहे हैं! यदि वर्षा ही न हुई तो खेत जोतने का क्या लाभ?”

किसान बोले-“मेढ़क भाई! यदि उनकी लड़ाई वर्षों तक चलती रही तो हम अपना कर्म ही भूल जाएंगे। इसलिए हमें अपना कर्म तो करते ही रहना चाहिए।”

मेढ़क ने सोचा- ‘तो मैं भी टर्राता हूं, नहीं तो मैं भी टर्राना भूल जाऊंगा। तब वह भी टर्राने लगा।’ उसने टर्राना शुरू किया तो मोर ने भी इंद्र एवं भगवान के मध्य लड़ाई की बात कही। मेढ़क बोला-“मोर भाई! हमें तो अपना कर्म करते ही रहना चाहिए, चाहे दूसरे अपने कार्य भूल जाएं।

क्योंकि यदि हम अपने कर्म भूल जाएंगे तो आने वाली पीढ़ी को कैसे मालूम होगा कि उन्हें क्या कर्म करने हैं। अतः सबको अपना कर्म करने चाहिएं। फल क्या और कब मिलता है, यह ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।” मेढ़क की बात सुनकर मोर भी पिहू-पिहू बोलने लगा।

देवराज इंद्र ने जब देखा कि सभी प्राणी अपने-अपने कार्य में लगे हैं तो उन्होंने सोचा कि ‘शायद इन्हें ज्ञात नहीं है कि मैं बारह वर्षों तक नहीं बरसूंगा। इसलिए ये अपने कर्म कर रहे हैं। मुझे जाकर इन्हें सत्य बताना चाहिए।’

यह सोचकर वे पृथ्वी पर आए और किसानों से बोले-“ये क्या कर रहे हो?”

किसान बोले- “भगवन! हमारा कर्म ही ईश्वर है। आप अपना कार्य करें अथवा न करें, हमें तो अपना कर्म करते ही रहना है।”

किसानों की बात सुन देवराज इंद्र ने अपनी जिद्द छोड़ते हुए बादलों को आदेश दिया कि वे पृथ्वी पर घनघोर बरसें ।

Saturday, 23 February 2013

24.02.13


एक हिन्दू सन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा. वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे.

सन्यासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पुछा;

"क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ?"

शिष्य कुछ देर सोचते रहे, एक ने उत्तर दिया, "क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए !”

"पर जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या ज़रुरत है, जो कहना है वो आप धीमी आवाज़ में भी तो कह सकते हैं", सन्यासी ने पुनः प्रश्न किया.

कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए.

अंततः सन्यासी ने समझाया…

“जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं. और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाये नहीं सुन सकते… वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा.

क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं, क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है.”

सन्यासी ने बोलना जारी रखा,” और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है ? तब वे बोलते भी नहीं, वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं.”

♥ ♥ जब किसी से बात करो तो ये ध्यान रखें कि दिलों में दूरी न होने पाए, ऐसे शब्द मत बोलो जिससे हमारे बीच की दूरी बढे नहीं तो एक समय ऐसा आएगा कि ये दूरी इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि हमें लौटने का रास्ता भी नहीं मिलेगा. इसलिए बात करो, चर्चा करो, लेकिन चिल्लाओ मत.♥ ♥

Friday, 22 February 2013

23.02.13


एक हिन्दू सन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा. वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे.

संयासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पुछा;

"क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ?"

शिष्य कुछ देर सोचते रहे, एक ने उत्तर दिया, "क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए !”

"पर जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या ज़रुरत है, जो कहना है वो आप धीमी आवाज़ में भी तो कह सकते हैं", सन्यासी ने पुनः प्रश्न किया.

कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए.

अंततः सन्यासी ने समझाया…

“जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं. और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाये नहीं सुन सकते… वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा.

क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं, क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है.”

सन्यासी ने बोलना जारी रखा,” और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है ? तब वे बोलते भी नहीं, वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं.”


Thursday, 21 February 2013

22.02.13


जरूर पढ़े. शायद इसे पढ़ने से आपकी जिंदगी मे कुछ अच्छे बदलाव आ जाए.

खरगोश अपनी जिंदगी से परेशान हो गये, उनहे लगा की वो दुनिया के सबसे कमजोर जानवर है। सारे खरगोशो ने अपना जीवन एक साथ समाप्त करने का सोचा।

खरगोश आत्महत्या करने के लिये झुण्ड बना के तालाब की तरफ बढ़े।

हजारो खरगोश जैसे तालाब के किनारे पहुँचे, हजारो मेढ़क डर कर तालाब मेँ कूद पड़े।

खरगोशो ने मेढ़को का डर देखा और उन्हे समझ आ गया की दुनिया मेँ उनसे भी कमजोर जीव जी रहे है और अपने जीवन को खो देना मूर्खता ही है।
..
.
कभी अपने ऊपर घमंड हो तो अपने से ऊपर वाले की तरफ देखिये, सारा घमंड चूर हो जायेगा।

और कभी अपने पे हीनता महसूस हो तो अपने से नीचे वाले की तरफ देखिये, आत्मविश्वास आ जायेगा।।

Wednesday, 20 February 2013

21.02.13


Blue is the color of the sky and sea. It is often associated with depth and stability. It symbolizes trust, loyalty, wisdom, confidence, intelligence, faith, truth, and heaven. Blue is considered beneficial to the mind and body. It slows human metabolism and produces a calming effect. Blue is strongly associated with tranquility and calmness. In heraldry, blue is used to symbolize piety and sincerity. You can use blue to promote products and services related to cleanliness (water purification filters, cleaning liquids, vodka), air and sky (airlines, airports, air conditioners), water and sea (sea voyages, mineral water). As opposed to emotionally warm colors like red, orange, and yellow; blue is linked to consciousness and intellect. Use blue to suggest precision whenpromoting high-tech products. Blue is a masculine color; according to studies, it is highly accepted among males. Dark blue is associated with depth, expertise, and stability; it is a preferred color for corporate America. Avoid using blue when promoting food and cooking, because blue suppresses appetite. When used together with warm colors like yellow or red, blue can create high-impact,vib rant designs; for example, blue-yellow-red is a perfect color scheme for a superhero. Light blue is associated with health, healing, tranquility, understanding, and softness. Dark blue represents knowledge, power, integrity, and seriousness...

Tuesday, 19 February 2013

20.02.13


महामूर्ख कौन ?

"ज्ञानचंद नामक एक जिज्ञासु भक्त था।

वह सदैव प्रभुभक्ति में लीन रहता था।

रोज सुबह उठकर पूजा- पाठ, ध्यान-भजन करने का उसका नियम था।

उसके बाद वह दुकान में काम करने जाता।

दोपहर के भोजन के समय वह दुकान बंद कर देता और फिर दुकान नहीं खोलता था।
बाकी के समय में वह साधु-संतों को भोजन करवाता, गरीबों की सेवा करता, साधु-संग एवं दान-पुण्य करता।

व्यापार में जो भी मिलता उसी में संतोष रखकर प्रभुप्रीति के लिए जीवन बिताता था।

उसके ऐसे व्यवहार से लोगों को आश्चर्य होता और लोग उसे पागल समझते।

लोग कहतेः
'यह तो महामूर्ख है।
कमाये हुए सभी पैसों को दान में लुटा देता है।
फिर दुकान भी थोड़ी देर के लिए ही खोलता है।

सुबह का कमाई करने का समय भी पूजा-पाठ में गँवा देता है।
यह तो पागल ही है।'

एक बार गाँव के नगर सेठ ने उसे अपने पास बुलाया।

उसने एक लाल टोपी बनायी थी।

नगर सेठ ने वह टोपी ज्ञानचंद को देते हुए कहाः
'यह टोपी मूर्खों के लिए है।
तेरे जैसा महान् मूर्ख मैंने अभी तक नहीं देखा,इसलिए यह टोपी तुझे पहनने के लिए देता हूँ।

इसके बाद यदि कोई तेरे से भी ज्यादा बड़ा मूर्ख दिखे तो तू उसे पहनने के लिए दे देना।'

ज्ञानचंद शांति से वह टोपी लेकर घर वापस आ गया।

एक दिन वह नगर सेठ खूब बीमार पड़ा।

ज्ञानचंद उससे मिलने
गया और उसकी तबीयत के हालचाल पूछे।

नगरसेठ ने कहाः
'भाई ! अब तो जाने की तैयारी कर रहा हूँ।'

ज्ञानचंद ने पूछाः
'कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हो?
वहाँ आपसे पहले किसी व्यक्ति को सब तैयारी करने के लिए भेजा कि नहीं?
आपके साथ आपकी स्त्री, पुत्र, धन, गाड़ी, बंगला वगैरह आयेगा किनहीं?'

'भाई ! वहाँ कौन साथ आयेगा?
कोई भी साथ नहीं आने वाला है।
अकेले ही जाना है।

कुटुंब-परिवार, धन- दौलत, महल-गाड़ियाँ सब छोड़कर यहाँ से जाना है।

आत्मा-परमात्मा के सिवाय किसी का साथ नहीं रहने वाला है।'

सेठ के इन शब्दों को सुनकर ज्ञानचंद ने खुद को दी गयी वह लाल टोपी नगर सेठ को वापस देते हुए कहाः
'आप ही इसे पहनो।'

नगर सेठः'क्यों?'

ज्ञानचंदः 'मुझसे ज्यादा मूर्ख तो आप हैं। जब आपको पता था कि पूरी संपत्ति, मकान, परिवार वगैरह सब यहीं रह जायेगा, आपका कोई भी साथी आपके साथ नहीं आयेगा, भगवान के सिवाय कोई भी सच्चा सहारा नहीं है, फिर भी आपने पूरी जिंदगी इन्हीं सबके पीछे क्यों बरबाद कर दी?

सुख में आन बहुत मिल बैठत रहत चौदिस घेरे।

विपत पड़े सभी संग छोड़तकोउ न आवे नेरे।।

जब कोई धनवान एवं शक्तिवान होता है तब सभी 'सेठ... सेठ.... साहब... साहब...' करते रहते हैं और अपने स्वार्थ के लिए आपके आसपास घूमते रहते हैं।

परंतु जब कोई मुसीबत आती है तब कोई भी मदद के लिए पास नहीं आता।

ऐसा जानने के बाद भी आपने क्षणभंगुर वस्तुओं एवं संबंधों के साथप्रीति की, भगवान से दूर रहे एवं अपने भविष्य का सामान इकट्ठा न किया तो ऐसी अवस्था में आपसे महान् मूर्ख दूसरा कौन हो सकता है?

गुरु तेग बहादुर जी ने कहा हैः
करणो हुतो सु ना कीओ परिओ लोभ के फंध।
नानक समिओ रमि गइओ अब किउ रोवत अंध।।

सेठजी ! अब तो आप कुछ भी नहीं कर सकते।
आप भी देख रहे हो कि कोई भी आपकी सहायता करने वाला नहीं है।'

क्या वे लोग महामूर्ख नहीं हैं जो जानते हुए भी मोह-माया में फँसकर ईश्वर सेविमुख रहते हैं?

संसार की चीजों में, संबंधों का संग एवं दान-पुण्य करते हुए जिंदगी व्यतीत करते तो इस प्रकार दुःखी होने एवं पछताने का समय न आता।" ...!!

Monday, 18 February 2013

19.02.13


कहाँ हैं भगवान ?

एक आदमी हमेशा की तरह अपने नाई की दूकान पर बाल कटवाने गया.
बाल कटाते वक़्त अक्सर देश-दुनिया की बातें हुआ करती थीं…. आज भी वे सिनेमा, राजनीति औरखेल जगत , इत्यादि के बारे में बातकर रहे थे कि अचानक भगवान् के अस्तित्व को लेकर बात होने लगी.
नाई ने कहा , “ देखिये भैया ,आपकी तरह मैं भगवान् के अस्तित्व में यकीन नहीं रखता .”
“तुम ऐसा क्यों कहते हो?”,आदमी ने पूछा .
“अरे , ये समझना बहुत आसान है , बस गली में जाइए और आप समझ जायेंगे कि भगवान् नहीं है. आप ही बताइए किअगर भगवान् होते तो क्या इतने लोगबीमार होते? इतने बच्चे अनाथ होते ? अगर भगवान् होते तो किसी को कोई दर्द कोई तकलीफ नहीं होती”,नाई ने बोलना जारी रखा , “मैं ऐसे भगवान के बारे में नहीं सोच सकता जो इन सब चीजों को होने दे . आप ही बताइए कहाँ है भगवान?”
आदमी एक क्षण के लिए रुका , कुछ सोचा, पर बहस बढे ना इसलिए चुप ही रहा .
नाई ने अपना काम ख़तम किया और आदमी कुछ सोचते हुए दुकान से बाहर निकला और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया. . कुछ देर इंतज़ार करने के बादउसे एक लम्बी दाढ़ी – मूछ वाला अधेड़ व्यक्ति उस तरफ आता दिखाई पड़ा, उसे देखकर लगता था मानो वो कितने दिनों से नहाया-धोया ना हो.
आदमी तुरंत नाई कि दुकान में वापस घुस गया और बोला , “ जानते हो इस दुनिया में नाई नहीं होते!”
“भला कैसे नहीं होते हैं?, नाई ने सवाल किया, “ मैं साक्षात तुम्हारे सामने हूँ!! ”
“नहीं ” आदमी ने कहा, “ वो नहीं होते हैं, वरना किसी की भी लम्बी दाढ़ी – मूछ नहीं होती पर वो देखो सामने उस आदमी की कितनी लम्बी दाढ़ी-मूछ है !!”
“अरे नहीं भाई साहब नाई होते हैं लेकिन बहुत से लोग हमारे पास नहींआते .” नाई बोला
“बिलकुल सही ” आदमी ने नाई को रोकते हुए कहा ,”यही तो बात है , भगवान भी होते हैं पर लोग उनके पास नहीं जाते और ना ही उन्हें खोजने का प्रयास करते हैं, इसीलिए दुनिया में इतना दुःख-दर्द है.”


Sunday, 17 February 2013

18.02.13



एक धनी परिवार की कन्या(तारा ) का विवाह ,एक सुयोग्य परिवार मे होता है ,लड़का पढ़ा लिखा और अति सुन्दर लेकिन बेरोजगार था। परिवार की आर्थिक स्थति बहुत ही अच्छी थी जिसके कारण उसके माता -पिता उसे किसी भी कार्य करने के लिये नहीं कहते थे और कहते थे कि बेटा(जिगर ) तू हमारी इकलौती संतान है ,तेरे लिये तो हमने खूब सारा धन दौलत जोड़ दिया है और हम कमा रहे है, तू तो बस मजे ले ।
इस बात को सुनकर लड़की (तारा) बेहद चिंतित रहती मगर किसी से अपनी मन की व्यथा कह नहीं पाती । एक दिन एक महात्मा जो छ:माह मे फेरी लगाते थे उस घर पर पहुँच गये और बोले । माई एक रोटी की आस है लड़की (तारा ) रोटी ले कर महात्मा फ़क़ीर को देने चल पड़ी ,सास भी दरबाजे पर ही खडी थी । महात्मा ने लड़की से कहा बेटी रोटी ताजा है या वासी लड़की (तारा) ने जबाब दिया कि महाराज रोटी वासी है।
सास बही खडी सुन रही थी और उसने कहा हरामखोर तुझे ताजी रोटी भी वासी दिखाई पड़ रही है ।महात्मा चुप चाप घर से मुख मोड़ कर चल पड़ा और लड़की (तारा ) से बोल़ा कि बेटी मे उस दिन वापस आऊंगा जब रोटी ताजा होगी ।
समय व्यतीत होता गया और तारा के पति (जिगर ) को कुछ समय बाद रोजगार मिल गया। अब तारा बहुत खुशी रहने लगी । कुछ दिन बाद महात्मा जी वापस फेरी लगाने आये और तारा के ससुराल जाकर रोटी मांगने लगे, महात्मा के लिये तारा रोटी लाती है । महात्मा जी का फिर बही सबाल था, बेटी रोटी ताजा है या वासी तारा ने जबाब दिया की महात्मा जी रोटी एक दम ताजी है,महात्मा ने रोटी ले ली और लड़की को खुशी से बहुत आशीर्वाद दिया।
सास दरबाजे पर खडी सुन रही थी और बोली की हरामखोर उस दिन तो रोटी वासी थी और आज ताजा वाह! बहुत बढ़िया संत रुके और बोले अरी पगली तू क्या जाने तू तो अज्ञानी है तेरी बहू वास्तब मे बहुत होशियार है जब मे पहले आया था तो इसने रोटी को वासी बताया था क्योकि यह तुम्हारे जोड़े और कमाये धन से गुजारा कर रहे थे जो इनके लिये वासी था । मगर अब तेरा बेटा रोजगार पर लग गया है और अपनी कमाई का ताजा धन लाता है इसलिये तेरी बहू ने पहले वासी और अब ताजी रोटी बताई । माँ बाप का जुड़ा धन किसी ओखे- झोके के लिये होता है जो वासी होता है , काम तो अपने द्वारा कमाये ताजा धन से ही चलता है । सास महात्मा के पैरों मे गिर पड़ी और उसको ताजी वासी का ज्ञान व अपनी बहू पर गर्व हुआ इसलिये मानव को हमेशा जुडे धन पर आश्रित नहीं रहना चाहिये वल्कि सदैव ताजे धन की ओर ललायित रहना चाहिये ,अगर हम जुडे धन पर ही आश्रित रहेंगे तो वो भी एक दिन खत्म हो जायेगा इसलिये हमे ताजा धन की आस करके सदैव प्रगति पथ पर निरंतर प्रवाह करना चाहिय


Saturday, 16 February 2013

17.02.13


संत और गुरु क्या है और केसे होने चाहिए:

एक जगह संत कथा कर रहे थे , उसी समय एक व्यक्ति उठा और संत के गंजे सर पर ठोला मार कर चला गया,
और वहा बेठे सभी भक्त जन सोच रहे थे की हम सभी तो गुरु जी को प्रणाम करते है और ये केसा दुष्ट है जो गुरु जी के सर पर ठोला मार रहा है?

सभी भक्तो को बड़ा ही क्रोध आया और कहा की
गुरुजी आप आज्ञा दे तो हम इस की पिटाई कर देते है !
गुरु जी ने कहा: क्यों ?

भक्तो ने कहा की : इसने आपके सर पर ठोला मारने का अपराध जो किया है,

गुरु जी ने हँस कर संत वाणी से कहा की :
भैया आप 40 चालीस रूपया की एक मटकी लेते हो तो उनपर ठोले मार कर बजा -बजा कर लेते हो की मटकी में कोई नुक्स तो नही है

फिर ये तो मुझे अपना जीवन सोपने जा रहा है,
जिसको जिवन सोपने जा रहा हो वो वाकय में गुरु बनाने के लायक है या नही , यही सोच कर मेरे सर को बजा रहा था ..

जिस की सकारात्मक सोच है संत और गुरु उसी को कहते है ,
जो हर उलटी बात का सीधा मतलब निकाले....!!!

{ जय श्री कृष्ण, श्री राधे }

Friday, 15 February 2013

16.02.13


एक दिन एक किसान का गधा सूखे कुएँ में गिर
गया ।वह गधा घंटों ज़ोर -ज़ोर से रोता रहा और
किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे
क्या करना चाहिऐ और क्या नहीं। अंततः उसने
निर्णय
लिया कि चूंकि गधा काफी बूढा हो चूका था,अतः उसे
बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं था;और
इसलिए उसे कुएँ में ही दफना देना चाहिऐ।
किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए
बुलाया। सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएँ
में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही गधे
कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है ,वह
और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ चीख़ कर रोने लगा ।
और फिर ,अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत
हो गया।
सब लोग चुपचाप कुएँ में मिट्टी डालते रहे।
तभी किसान ने कुएँ में झाँका तो वह आश्चर्य से
सन्न रह गया। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर
फावड़े की मिट्टी के साथ वह गधा एक
आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था। वह हिल-हिल
कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर
एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था।
जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर
फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे -वैसे वह हिल-हिल
कर उस मिट्टी को गिरा देता और एस सीढी ऊपर
चढ़ आता । जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित
करते हुए वह गधा कुएँ के किनारे पर पहुंच
गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया।
ध्यान रखो ,तुम्हारे जीवन में भी तुम पर बहुत
तरह कि मिट्टी फेंकी जायेगी ,बहुत तरह
कि गंदगी तुम पर गिरेगी। जैसे कि ,तुम्हे आगे
बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में
ही तुम्हारी आलोचना करेगा ,कोई
तुम्हारी सफलता से ईर्ष्या के कारण तुम्हे बेकार
में ही भला बुरा कहेगा । कोई तुमसे आगे निकलने
के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ
दिखेगा जो तुम्हारे आदर्शों के विरुद्ध होंगे। ऐसे
में तुम्हे हतोत्साहित होकर कुएँ में ही नहीं पड़े
रहना है बल्कि साहस के साथ हिल-हिल कर हर
तरह कि गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख
लेकर,उसे सीढ़ी बनाकर,बिना अपने
आदर्शों का त्याग किये अपने कदमों को आगे
बढ़ाते जाना है।

Thursday, 14 February 2013

15.02.13


एक दार्शनिक किसी काम से बाहर जा रहे थे। रास्ते में टैक्सी वाले का बुझा सा चेहरा देख कर पूछा, क्यों भाई बीमार हो? यह सुनकर टैक्सी वाला बोला, सर, क्या आप डॉक्टर हैं? दार्शनिक ने कहा, नहीं, पर तुम्हारा चेहरा तुम्हें थका हुआ और बीमार बता रहा है। टैक्सी वाला ठंडी आह भरते हुए बोला, हां, आजकल पीठ में बहुत दर्द रहता है। उम्र पूछने पर बताया कि वह छब्बीस साल का है। सुन कर दार्शनिक ने कहा, इतनी कम उम्र में पीठ दर्द? यह तो बिना दवा के ही ठीक हो सकता है, थोड़ा व्यायाम किया करो। लेकिन थोड़ी देर तक कुछ सोचने के बाद दार्शनिक ने फिर पूछा, क्यों भाई, आजकल क्या धंधे में भी कड़की चल रही है? टैक्सी वाला चौंका, 'साहब, आपको मेरे बारे में इतना कुछ कैसे पता है? क्या आप कोई ज्योतिषी हैं? दार्शनिक ने मुस्कराते हुए कहा, नहीं। लेकिन तुम्हारे बारे में मैं ही क्या, कोई भी ये बातें बता देगा। टैक्सी वाला हैरान होकर बोला, भला ऐसे-कैसे कोई भी मेरे बारे में सब कुछ
बता देगा? इस पर दार्शनिक बोले, जब तुम हर वक्त बुझे हुए निस्तेज चेहरे से सवारियों का स्वागत करोगे, तो भला कौन तुम्हारी टैक्सी में बैठना चाहेगा? इस तरह आमदनी अपने आप ही कम हो जाएगी। आमदनी कम होने से तुम्हें गुस्से के साथ-साथ सुस्ती का भी अहसास होगा। यह सारी बातें सुन कर टैक्सी वाला बोला, बस सर, आज आपने मुझे मेरी गलती का अहसास
करा दिया। आज से ही मैं अपनी इन कमियों को दूर करके अपने अंदर उत्साह का संचार करूंगा। इस घटना के लगभग चार-पांच वर्षों बाद एक दिन एक सज्जन ने उन दार्शनिक की पीठ पर हाथ रखते हुए मुस्कुरा कर कहा, सर कैसे हैं? दार्शनिक बोले, ठीक हूं बेटा, पर मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। इस पर वह सज्जन बोले, सर, मैं वही टैक्सी वाला हूं जिसे आपने उत्साह और मुस्कराहट का पाठ पढ़ाया था। आपकी शिक्षा के ही कारण आज मैं एक बड़ी टैक्सी एजेंसी का मालिक हूं। और अब मैं भी हर उदास व्यक्ति को मुस्कराते हुए काम करने की सलाह देता हूं। जिंदगी में उत्साह एवं मुस्कराहट का होना बहुत जरूरी है। उत्साह बिगड़ते हुए काम को भी बना देता है, वहीं उदासीन और थका हुआ चेहरा बने-बनाए काम को बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आज धैर्य व सहनशीलता की कमी के कारण हम अपनी असफलता का कारण इधर-उधर खोजते हैं, जबकि असफलता का कारण हमारे स्वयं के ही अंदर छिपा होता
है। काम कठिन हो या सरल, किंतु अगर उसे उत्साह के साथ मुस्कराते हुए किया जाए, तो वह न केवल समय से पहले पूरा होता है, बल्कि अच्छी तरह से पूरा होता है। कई बार जब हमारा काम करने का दिल नहीं होता अथवा हम उस काम को करते हुए उत्साह नहीं दिखाते तो वह काम अत्यंत कठिन और बोरियत भरा लगता है। इच्छा न होने पर काम करते समय ईर्ष्या,
क्रोध व तनाव जैसे आवेग उसकी राह में अनेक
बाधाएं खड़ी कर देते हैं। वहीं, उत्साह, मुस्कराहट, प्रेम आदि के भाव किसी काम को सहज और सरल बना देते हैं। इसके विपरीत किसी कार्य में उत्साह बनाए रखने पर उसके साथ अनेक दूसरे काम भी निबटाए जा सकते हैं। कई लोग अपने जीवन में उच्च पद प्राप्त कर लेते हैं, जबकि कई लोग साधारण स्तर तक ही पहुंच पाते हैं। इसके पीछे भी यही कारण होता है। जो तय मंजिल तक नहीं पहुंच पाते, उनमें उत्साह का अभाव होता है। यदि व्यक्ति हर सुबह
उठते ही स्वयं के अंदर उत्साह का संचार करे और मन में यह दृढ़ निश्चय करे कि आज का दिन उसके लिए अत्यंत शुभ है और आज वह अपने अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करेगा तो वास्तव में वह ऐसा कर लेगा।

Wednesday, 13 February 2013

14.02.13


*वही सबसे तेज चलता है, जो अकेला चलता है।
*प्रत्येक अच्छा कार्य पहले असम्भव नजर आता है।
*ऊद्यम ही सफलता की कुंजी है।
*एकाग्रता से ही विजय मिलती है।
*कीर्ति वीरोचित कार्यो की सुगन्ध है।
*भाग्य साहसी का साथ देता है।
*सफलता अत्यधिक परिश्रम चाहती है।
*विवेक बहादुरी का उत्तम अंश है।
*कार्य उद्यम से सिद्ध होते है, मनोरथो से नही।
*संकल्प ही मनुष्य का बल है।
*प्रचंड वायु मे भी पहाड विचलित नही होते।
*कर्म करने मे ही अधिकार है, फल मे नही।
*मेहनत, हिम्मत और लगन से कल्पना साकार होती है।
*अपने शक्तियो पर भरोसा करने वाला कभी असफल नही होता।

Tuesday, 12 February 2013

13.02.13


एक राजा ने दूसरे राजा के पास एक पत्र और सुरमे की एक छोटी सी डिबिया भेजी। पत्र में लिखा था कि जो सुरमा भिजवा रहा हूं, वह अत्यंत मूल्यवान है। इसे लगाने से अंधापन दूर हो जाता है। राजा सोच में पड़ गया। वह समझ नहीं पा रहा था कि इसे किस-किस को दे। उसके राज्य में नेत्रहीनों की संख्या अच्छी-खासी थी, पर सुरमे की मात्रा बस इतनी थी जिससे दो आंखों की रोशनी लौट सके।

राजा इसे अपने किसी अत्यंत प्रिय व्यक्ति को देना चाहता था। तभी राजा को अचानक अपने एक वृद्ध मंत्री की स्मृति हो आई। वह मंत्री बहुत ही बुद्धिमान था, मगर आंखों की रोशनी चले जाने के कारण उसने राजकीय कामकाज से छुट्टी ले ली थी और घर पर ही रहता था। राजा ने सोचा कि अगर उसकी आंखों की ज्योति वापस आ गई तो उसे उस योग्य मंत्री की सेवाएं फिर से मिलने लगेंगी। राजा ने मंत्री को बुलवा भेजा और उसे सुरमे की डिबिया देते हुए कहा, ‘इस सुरमे को आंखों में डालें। आप पुन: देखने लग जाएंगे। ध्यान रहे यह केवल 2 आंखों के लिए है।’ मंत्री ने एक आंख में सुरमा डाला। उसकी रोशनी आ गई। उस आंख से मंत्री को सब कुछ दिखने लगा। फिर उसने बचा-खुचा सुरमा अपनी जीभ पर डाल लिया।

यह देखकर राजा चकित रह गया। उसने पूछा, ‘यह आपने क्या किया? अब तो आपकी एक ही आंख में रोशनी आ पाएगी। लोग आपको काना कहेंगे।’ मंत्री ने जवाब दिया, ‘राजन, चिंता न करें। मैं काना नहीं रहूंगा। मैं आंख वाला बनकर हजारों नेत्रहीनों को रोशनी दूंगा। मैंने चखकर यह जान लिया है कि सुरमा किस चीज से बना है। मैं अब स्वयं सुरमा बनाकर नेत्रहीनों को बांटूंगा।’

राजा ने मंत्री को गले लगा लिया और कहा, ‘यह हमारा सौभाग्य है कि मुझे आप जैसा मंत्री मिला। अगर हर राज्य के मंत्री आप जैसे हो जाएं तो किसी को कोई दुख नहीं होगा...

Monday, 11 February 2013

12.02.13


हनुमान जी के बारह नाम
१.जय हनुमान
२.जय अंजनीसुत
३.जय वायुपुत्र
४.जय रामेष्ट
५.जय महाबल
६.जय फाल्गुन्सख
७.जय पिंगाक्ष
८.जय उध्दिक्रमण
९.जय अमितविक्रम
१०.जय सीताशोकविनाशन
११.जय लक्ष्मणप्राणदाता
१२.जय दसग्रीवद्रपहा
सर्व सिद्धि देने वाले बाबा जी के नाम जपिए सदा भक्ति शक्ति एवं शांति का वरदान पाइए..
जय श्री हनुमान

Sunday, 10 February 2013

11.01.13


औक्षण क्यों किया जाता है ?
किसी शुभ अवसर पर किसी व्यक्ति की आरती उतारने को औक्षण कहा जाता है .
`औक्षण' की कृति से जीव की सूक्ष्मदेह की शुद्धि में सहायता मिलती है । औक्षण करवाने वाला एवं करने वाला, दोनोंमें यह भाव रहे कि, `एक दूसरेके माध्यमसे प्रत्यक्ष ईश्वर ही यह कृतिस्वरूप कार्य द्वारा हमें आशीर्वाद दे रहे हैं' । कुलदेवता अथवा उपास्य देवता का स्मरण कर अक्षत तीन बार जीवके सिरपर डालनेसे आशीर्वादात्मक तरंगों का स्रोत जीव की संपूर्ण देह में संक्रमित होता है । इस प्रक्रिया से दोनों जीवों की देह से प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगों के कारण वायुमंडल की शुद्धि होती है .
आश्विनी पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला ज्येष्ठापत्यनीरांजन, नरक चतुर्दशी के दिन किया जाने वाला नारीकतृकनीरांजन, बलिप्रतिप्रदा के दिन किया जाने वाला पतिनीरांजन तथा यमद्वितीया के दिन किया जाने वाला भातृनीरांजन , रक्षा बंधन , जन्म दिवस -इन सभी आरतियों को औक्षण कहते हैं। औक्षण के समय पुरूष आरती उतारने वाली स्त्री को भेंट वस्तु देते हैं। औक्षण के समय दो नीरांजनों का उपयोग किया जाता है। औक्षण का अधिकार सभी स्त्रियों को है। भैयादूज के दिन विधवा बहन अपने भाई का औक्षण कर सकती है। आश्विन पूर्णिमा के के दिन विधवा माता अपने ज्येष्ठापत्य का नीरांजन कर सकती है। औक्षण के लिए तेल की दो बत्तियों का प्रयोग करें। औक्षण के लिए पीतल के दो दीये लेते हैं। कई बार औक्षण के लिए पंचारती का भी उपयोग किया जाता है। औक्षण के समय थाली में हल्दी, कुंकुम, अक्षत, पान, सुपारी एवं कुछ सुवर्ण अलंकार रखें।
औक्षण का दिया ब्रम्हांड की शक्ति को आकृष्ट करता है और उसे हम जिसके आस पास घुमाते है उसके चारो तरफ गतिमान सुरक्षा कवच का निर्माण करता है .
घर की दहलीज सभी बुरी तरंगों को धरती में बजने का कार्य करता है इसलिए वहां पर औक्षण करने से तम तरंगे व्यक्ति के आस पास केन्द्रित होंगी . अतः घर के अन्दर पीढ़े पर बैठा कर और उसके चारो ओर रंगोली से शुभ तरंगे संचालित कर उस पर औक्षण करें .
औक्षण की थाली में सीधे हाथ पर सुपारी और सोने का गहना जैसे अंगूठी या चूड़ी रखते है जो प्रत्यक्ष कार्य करने वाले शिव तत्व या पुरुष तत्व का प्रतिक है .
अक्षत सर्व समावेशक होने के कारण थाली के मध्य भाग में रखे जाते है .
अक्षत के थोड़ा आगे दीप रखें जो आत्म शक्ति के बल पर कार्यरत होने वाली सुषुम्ना नाडी का प्रतिक है .
हल्दी - कुंकुम आदि शक्ति के आशीर्वाद को और अंगूठी - सुपारी शिव तत्व के आशीर्वाद को अक्षत के माध्यम से व्यक्ति तक पहुंचाते है .इससे व्यक्ति को शुभ कार्य करने की शक्ति , प्रेरणा और सफलता प्राप्त होती है .

Saturday, 9 February 2013

10.02.13


एक जाने-माने स्पीकर ने हाथ में पांच सौ का नोट लहराते हुए अपनी सेमीनार शुरू की. हाल में बैठे सैकड़ों लोगों से उसने पूछा ,” ये पांच सौ का नोट कौन लेना चाहता है?” हाथ उठना शुरू हो गए.

फिर उसने कहा ,” मैं इस नोट को आपमें से किसी एक को दूंगा पर उससे पहले मुझे ये कर लेने दीजिये .” और उसने नोट को अपनी मुट्ठी में चिमोड़ना शुरू कर दिया. और फिर उसने पूछा,” कौन है जो अब भी यह नोट लेना चाहता है?” अभी भी लोगों के हाथ उठने शुरू हो गए.

“अच्छा” उसने कहा,” अगर मैं ये कर दूं ? “ और उसने नोट को नीचे गिराकर पैरों से कुचलना शुरू कर दिया. उसने नोट उठाई , वह बिल्कुल चिमुड़ी और गन्दी हो गयी थी.

“ क्या अभी भी कोई है जो इसे लेना चाहता है?”. और एक बार फिर हाथ उठने शुरू हो गए.

“ दोस्तों , आप लोगों ने आज एक बहुत महत्त्वपूर्ण पाठ सीखा है. मैंने इस नोट के साथ इतना कुछ किया पर फिर भी आप इसे लेना चाहते थे क्योंकि ये सब होने के बावजूद नोट की कीमत घटी नहीं,उसका मूल्य अभी भी 500 था.

जीवन में कई बार हम गिरते हैं, हारते हैं, हमारे लिए हुए निर्णय हमें मिटटी में मिला देते हैं. हमें ऐसा लगने लगता है कि हमारी कोई कीमत नहीं है. लेकिन आपके साथ चाहे जो हुआ हो या भविष्य में जो हो जाए , आपका मूल्य कम नहीं होता. आप स्पेशल हैं, इस बात को कभी मत भूलिए.

कभी भी बीते हुए कल की निराशा को आने वाले कल के सपनो को बर्बाद मत करने दीजिये. याद रखिये आपके पास जो सबसे कीमती चीज है, वो है आपका जीवन.

Friday, 8 February 2013

09.02.13


एक बार किसी विद्वान् से एक बूढ़ी औरत ने पूछा कि क्या इश्वर सच में होता है ? उस विद्वान् ने कहा कि माई आप क्या करती हो ? उसने कहा कि मै तो दिन भर घर में अपना चरखा कातती हूँ और घर के बाकि काम करती हूँ , और मेरे पति खेती करते हैं . उस विद्वान ने कहा कि माई क्या ऐसा भी कभी हुआ है कि आप का चरखा बिना आपके चलाये चला हो , या कि बिना किसी के चलाये चला हो ? उसने कहा ऐसा कैसे हो सकता है कि वो बिना किसी के चलाये चल जाये? ऐसा तो संभव ही नहीं है. विद्वान् ने फिर कहा कि माई अगर आपका चरखा बिना किसी के चलाये नहीं चल सकता तो फिर ये पूरी सृष्टि किसी के बिना चलाये कैसे चल सकती है ? और जो इस पूरी सृष्टि को चला रहा है वही इसका बनाने वाला भी है और उसे ही इश्वर कहते हैं.

उसी तरह किसी और ने उसी विद्वान् से पूछा कि आदमी मजबूर है या सक्षम? उन्होंने कहा कि अपना एक पैर उठाओ, उसने उठा दिया, उन्होंने कहा कि अब अपना दूसरा पैर भी उठाओ, उस व्यक्ति ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है? मै एक साथ दोनों पैर कैसे उठा सकता हूँ? तब उस विद्वान् ने कहा कि इंसान ऐसा ही है, ना पूरी तरह से मजबूर और ना ही पूरी तरह से सक्षम . उसे इश्वर ने एक हद तक सक्षम बनाया है और उसे पूरी तरह से छूट भी नहीं है . उसको इश्वर ने सही गलत को समझने कि शक्ति दी है और अब उसपर निर्भर करता है कि वो सही और गलत को समझ कर अपने कर्म को करे.

Thursday, 7 February 2013

08.02.13


एक प्रेरक कहानी :

गुरु-शिष्य भ्रमण करते हुए एक वन से गुजर रहे थे। कुछ दूर से एक झरने का पानी बह कर आ रहा था। गुरूजी को प्यास लगी। उन्होंने शिष्य को कमण्डल में पानी भर कर लाने के लिए कहा।
शिष्य ने पानी के पास पहुँच कर देखा कि वहां से अभी-अभी बैल गाड़ियाँ निकलीं हैं, जिससे वहां का पानी गंदा हो गया था और सूखे पत्ते तैर रहे थे।

शिष्य ने आकर गुरूजी से कहा- " कहीं और से पानी का प्रबंध करना होगा।" लेकिन गुरूजी ने शिष्य को बार-बार वहीं से पानी लाने को कहा। हर बार शिष्य देखता कि पानी गंदा था फिर भी ....। पांचवी बार भी जब वहीं से पानी लाने को कहा गया, तब शिष्य के चेहरे पर असंतोष और खीज के भाव थे।

शिष्य गुरूजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था, अत: वह फिर वहां गया। इस बार जाने पर शिष्य ने देखा कि झरने का जल शांत एवं स्वच्छ था। वह प्रसन्नता पूर्वक गुरूजी के पीने के लिए पात्र में जल भर लाया।

शिष्य के हाथ से जल ग्रहण करते हुए गुरूजी मुस्कराए और शिष्य को समझाया - " वत्स ! हमारे मन रूपी जल को भी प्रायः कुविचारों के बैल दूषित करते रहते हैं। अत:हमें अपने मन के झरने के शांत होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए, तभी मन में स्वच्छ विचार आयेंगे। उद्वेलित मन से कभी कोइ निर्णय नहीं लेना चाहिए।

कथा मर्म : शांत मन ही स्वच्छ हो सकता है, सो कभी विचार रूपी बैलो को हावी न होने दे अपने मन पर । निष्काम भाव से बस कर्म करते रहे, मन को गंदा होने से बचाते रहे ।

Wednesday, 6 February 2013

07.02.13


एक बार एक गुरु ने अपने सभी शिष्यों से अनुरोध
किया कि
वे कल प्रवचन में आते समय अपने साथ एक
थैली में बड़े-बड़े आलू साथ लेकर आएं। उन
आलुओं पर उस
व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिए, जिनसे वे
ईर्ष्या करते हैं। जो शिष्य जितने व्यक्तियों से
ईर्ष्या करता है, वह उतने आलू लेकर आए।

अगले दिन सभी शिष्य आलू लेकर आए। किसी के
पास
चार आलू थे तो किसी के पास छह। गुरु ने
कहा कि अगले सात दिनों तक ये आलू वे अपने
साथ
रखें।

जहां भी जाएं, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू
सदैव साथ रहने चाहिए।

शिष्यों को कुछ समझ में
नहीं आया, लेकिन वे क्या करते, गुरु का आदेश
था।

दो-चार दिनों के बाद ही शिष्य आलुओं की बदबू
से
परेशान हो गए। जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन
बिताए और गुरु के पास पहुंचे।

गुरु ने कहा, 'यह सब
मैंने आपको शिक्षा देने के लिए किया था।
जब मात्र सात दिनों में आपको ये आलू बोझ
लगने
लगे, तब सोचिए कि आप जिन व्यक्तियों से
ईर्ष्या करते हैं, उनका कितना बोझ आपके मन
पर
रहता होगा। यह ईर्ष्या आपके मन पर
अनावश्यक
बोझ डालती है, जिसके कारण आपके मन में
भी बदबू
भर जाती है, ठीक इन आलूओं की तरह। इसलिए
अपने
मन से गलत भावनाओं को निकाल दो,
यदि किसी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से
कम
नफरत तो मत करो। इससे आपका मन स्वच्छ
और
हल्का रहेगा।

' यह सुनकर सभी शिष्यों ने आलुओं के
साथ-साथ अपने मन से ईर्ष्या को भी निकाल
फेंका।

Tuesday, 5 February 2013

06.02.13


एक बार अवंतिपुर में साधु कोटिकर्ण आए। उन दिनों उनके नाम की धूम थी। उनका सत्संग पाने दूर-दूर से लोग आते थे। उस नगर में रहने वाली कलावती भी सत्संग में जाती थी। कलावती के पास अपार संपत्ति थी। उसके रात्रि सत्संग की बात जब नगर के चोरों को मालूम हुई तो उन्होंने उसके घर सेंध लगाने की योजना बनाई।

एक रात जब कलावती सत्संग में चली गई, तब चोर उसके घर आए। घर पर दासी अकेली थी। जब दासी को पता चला कि चोर सेंध लगा रहे हैं तो वह डरकर वहां से भागी और उधर चल दी जहां कलावती सत्संग में बैठी थी। कलावती तन्मय होकर कोटिकर्ण की अमृतवाणी सुन रही थी।

दासी ने उसे संकेत से बुलाया, किंतु कलावती ने ध्यान नहीं दिया। इस बीच चोरों का सरदार दासी का पीछा करता हुआ वहां आ पहुंचा। तब डरकर दासी कलावती के पास जाकर बोली- स्वामिन चलिए घर में चोर घुस आए हैं। कलावती ने कहा -तू चुपचाप सत्संग सुन।

धन तो फिर मिल जाएगा किंतु इतना अच्छा सत्संग कहां मिलेगा। कलावती का जवाब सुनकर चोरों का सरदार स्तब्ध रह गया और उसने भी पूरा सत्संग सुना। सत्संग समाप्ति पर वह कलावती के चरणों में गिर पड़ा और बोला- आज तुमने मेरी आंखों से अज्ञान का पर्दा उठा दिया।

अब मैं कभी चोरी नहीं करूंगा। तब तक उसके साथी चोर भी वहां आ पहुंचे। उन्होंने कहा- हमें कितना धन मिल रहा था और तुम यहां आ बैठे। तब वह बोला- अब तक झूठे सुख से संतोष पाया, किंतु आज सच्च सुख मिला है। तुम भी मेरे साथ सत्संग सुनो।

सार यह है कि भौतिक संपदा शरीर को सुख पहुंचाती है किंतु सत्संग आत्मा को सुकून देता है और आत्मा का संतोष शरीर के सुख से बढ़कर होता है !

Monday, 4 February 2013

05.02.13


एक युवा ब्रह्मचारी देश- विदेश का भ्रमण कर और वहां के ग्रंथों का अध्ययन कर जब अपने देश
लौटा,तो सबके सामने इस बात की शेखी बघारने
लगा कि उसके समान अधिक ज्ञानी विद्वान और कोई नहीं! उसके पास
जो भी व्यक्ति जाता, वह उससे प्रश्न
किया करता कि क्या उसने उससे बढ़कर कोई विद्वान देखा है? बात बुद्ध के कानों तक
भी जा पहुंची। वह ब्राह्मण वेश में उसके पास गए। ब्रह्मचारी ने
उनसे प्रश्न किया -कौन हो तुम ब्राह्मण?
बुद्ध ने कहा- अपनी देह और मन पर
जिसका पूर्ण अधिकार है मैं ऐसा एक तुच्छ
मनुष्य हूं! युवा ब्रह्मचारी बोला-
भलीभांति स्पष्ट करो मुझे कुछ समझ नहीं आया। बुद्ध ने कहा- जिस तरह कुम्हार घड़े
बनाता है, नाविक नौका चलाता है
धनुर्धारी बाण चलाता है, गायक गीत गाता है,
वादक वाद्य बजाता है और विद्वान वाद-
विवाद में भाग लेता है, उसी तरह ज्ञानी पुरुष
स्वयं पर ही शासन करता है। ब्रह्मचारी ने पुन: प्रश्न किया- ज्ञानी पुरुष भला स्वयं पर शासन
कैसे करता है? बुद्ध ने समझाया-
लोगों द्वारा स्तुति-सुमनों की वर्षा किए
जाने पर अथवा निंदा के अंगार बरसाने पर
भी ज्ञानी पुरुष का मन शांत ही रहता है। उसका मन सदाचार, दया और विश्व-प्रेम पर
ही केंद्रित रहता है इसलिए
प्रशंसा या निंदा का उस पर कोई भी असर
नहीं पड़ता! यही वजह है कि उसके चित्त
सागर में शांति की धारा बहती रहती है। उस
ब्रह्मचारी ने जब स्वयं के बारे में सोचा तो उसे आत्मग्लानि हुई और वह बुद्ध के कदमों पर
गिरकर बोला- स्वामी! अब तक मैं भूल में था। मैं
स्वयं को ही ज्ञानी समझता था पर आज मैंने
जाना कि मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है। बुद्ध
बोले- हां, ज्ञान का पहला पाठ आज
ही तुम्हारी समझ में आया है बंधु! तुम मेरे साथ मठ में चलो और इसके आगे के पाठों का अध्ययन
वहीं करना। बुद्ध उसे अपने साथ ले गए। वह
उनका शिष्य बन गया...

Sunday, 3 February 2013

04.01.13


प्राचीन काल में एक राजा का यह नियम था कि वह अनगिनत संन्यासियों को दान देने के बाद ही भोजन ग्रहण करता था.

एक दिन नियत समय से पहले ही एक संन्यासी अपना छोटा सा भिक्षापात्र लेकर द्वार पर आ खड़ा हुआ. उसने राजा से कहा – “राजन, यदि संभव हो तो मेरे इस छोटे से पात्र में भी कुछ भी डाल दें.”

याचक के यह शब्द राजा को खटक गए पर वह उसे कुछ भी नहीं कह सकता था. उसने अपने सेवकों से कहा कि उस पात्र को सोने के सिक्कों से भर दिया जाय.

जैसे ही उस पात्र में सोने के सिक्के डाले गए, वे उसमें गिरकर गायब हो गए. ऐसा बार-बार हुआ. शाम तक राजा का पूरा खजाना खाली हो गया पर वह पात्र रिक्त ही रहा.

अंततः राजा ही याचक स्वरूप हाथ जोड़े आया और उसने संन्यासी से पूछा – “मुझे क्षमा कर दें, मैं समझता था कि मेरे द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं जा सकता. अब कृपया इस पात्र का रहस्य भी मुझे बताएं. यह कभी भरता क्यों नहीं?”

संन्यासी ने कहा – “यह पात्र मनुष्य के ह्रदय से बना है. इस संसार की कोई वस्तु मनुष्य के ह्रदय को नहीं भर सकती. मनुष्य कितना ही नाम, यश, शक्ति, धन, सौंदर्य, और सुख अर्जित कर ले पर यह हमेशा और की ही मांग करता है. केवल ईश्वरीय प्रेम ही इसे भरने में सक्षम है.

Saturday, 2 February 2013

03.02.13


एक व्यक्ति अपने दो पुत्रों को चिडियाघर ले
गया। टिकट खिडकी पर प्रवेश टिकटों का मूल्य
इस प्रकार लिखा था, छ: वर्ष से छोटे
बच्चों को नि:शुल्क प्रवेश। छ: वर्ष से बारह
वर्ष तक के बच्चों के लिए पांच रुपए। अन्य,
दस रुपए।
व्यक्ति ने टिकट बेचनेवाले को रुपए देते हुए
कहा, छोटा लडका सात साल, बडा लडका तेरह
साल और एक टिकट मेरा।
टिकट बेचनेवाले ने कहा, आप अजीबआदमी हैं!
आप कम से कम दस रुपये बचा सकते थे। छोटे
को छ: साल का बताते और बडे को बारह साल
का। मुझे एक-एक साल का अंतर थोडे
ही पता चलता।
व्यक्ति ने कहा, आपको तो पता नहीं चलता,
लेकिन बच्चों को तो उनकी उम्र पता है और मैं
नहीं चाहता कि वे इस बुरी बात से सीख लें और
यह एक कुरीति बन जाए!

*एक बालक के संस्कारों की पहली पाठशाला उसका घर
ही होता हैं.*

Friday, 1 February 2013

02.02.13


अपने की चोट...

एक सुनार था। उसकी दुकान से मिली हुई एक लुहार की दुकान थी। सुनार जब काम करता, उसकी दुकान से बहुत ही धीमी आवाज होती, पर जब लुहार काम करतातो उसकी दुकान से कानो के पर्दे फाड़ देने वाली आवाज सुनाई पड़ती।

एक दिन सोने का एक कण छिटककर लुहार की दुकान में आ गिरा। वहां उसकी भेंट लोहे के एक कण के साथ हुई।

सोने के कण ने लोहे के कण से कहा, "भाई, हम दोनों का दु:ख समान है। हम दोनों को एक ही तरह आग में तपाया जाता है और समान रुप से हथौड़े की चोटें सहनी पड़ती हैं। मैं यह सब यातना चुपचाप सहन करता हूं, पर तुम...?"

"तुम्हारा कहना सही है, लेकिन तुम पर चोट करने वाला लोहे का हथौड़ा तुम्हारा सगा भाई नहीं है, पर वह मेरा सगा भाई है।" लोहे के कण ने दु:ख भरे स्वर में उत्तर दिया। फिर कुछ रुककर बोला, "पराये की अपेक्षा अपनों के द्वारा गई चोट की पीड़ा अधिक असह्म होती है।"