Tuesday, 30 April 2013

01.05.13


एक साधु से किसी व्यक्ति ने कहा कि विचारों का प्रवाह उसे बहुत परेशान कर रहा है. उस साधु ने उसे निदान और चिकित्सा के लिए अपने एक मित्र साधु के पास भेजा और उससे कहा, “जाओ और उसकी समग्र जीवन-चर्या ध्यान से देखो. उससे ही तुम्हें मार्ग मिलने को है.”

वह व्यक्ति गया. जिस साधु के पास उसे भेजा गया था, वह सराय में रखवाला था. उसने वहां जाकर कुछ दिन तक उसकी चर्या देखी. लेकिन उसे उसमें कोई खास बात सीखने जैसी दिखाई नहीं पड़ी. वह साधु अत्यंत सामान्य और साधारण व्यक्ति था. उसमें कोई ज्ञान के लक्षण भी दिखाई नहीं पड़ते थे. हां, बहुत सरल था और शिशुओं जैसा निर्दोष मालूम होता था, लेकिन उसकी चर्या में तो कुछ भी न था. उस व्यक्ति ने साधु की पूरी दैनिक चर्या देखी थी, केवल रात्रि में सोने के पहले और सुबह जागने के बाद वह क्या करता था, वही भर उसे ज्ञात नहीं हुआ था. उसने उससे ही पूछा.

साधु ने कहा, “कुछ भी नहीं. रात्रि को मैं सारे बर्तन मांजता हूं और चूंकि रात्रि भर में उनमें थोड़ी बहुत धूल पुन: जम जाती है, इसलिए सुबह उन्हें फिर धोता हूं. बरतन गंदे और धूल भरे न हों, यह ध्यान रखना आवश्यक है. मैं इस सराय का रखवाला जो हूं.”

वह व्यक्ति इस साधु के पास से अत्यंत निराश हो अपने गुरु के पास लौटा. उसने साधु की दैनिक चर्या और उससे हुई बातचीत गुरु को बताई.

उसके गुरु ने कहा, “जो जानने योग्य था, वह तुम सुन और देख आये हो. लेकिन समझ नहीं सके. रात्रि तुम भी अपने मन को मांजो और सुबह उसे पुन: धो डालो. धीरे-धीरे चित्त निर्मल हो जाएगा. सराय के रखवाले को इस सबका ध्यान रखना बहुत आवश्यक है.”

चित्त की नित्य सफाई अत्यंत आवश्यक है. उसके स्वच्छ होने पर ही समग्र जीवन की स्वच्छता या अस्वच्छता निर्भर है. जो उसे विस्मरण कर देते हैं, वे अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं.

Monday, 29 April 2013

30..04.13


एक गरीब ब्रह्मण था . उसको अपनीं कन्या का विवाह करना था . उसने विचार किया कि कथा करने से कुछ पैसा आजायेगा तो काम चल जाये गा . ऐसा विचार करके उसने भगवन राम के एक मंदिर में बैठ कर कथा अर्रम्भ कर दी . उसका भाव यह था कि कोई श्रोता आये, चाहे न आये पर भगवन तो मेरी कथा सुनेंगे !
पंडित जी कथा में थोड़े से श्रोता आने लगे एक बहुत कंजूस सेठ था. एक दिन वह मंदिर में आया. जब वह मंदिर कि परोकरम कर रहा था, तब भीतर से कुछआवाज आई. ऐसा लगा कि दो व्यक्ति आपस में बात कर रहे हैं. सेठ ने कान लगा कर सुना. भगवन राम हनुमान जी से कह रहे थे कि इस गरीब ब्रह्मण के लिए सौ रूपए का कर देना, जिससे कन्यादान ठीक हो जाये.हनुमान जी नेकहा ठीक है महाराज !इसके सौ रूपए पैदा हो जायेंगे. सेठ ने यह सुना तो वह कथा समाप्ति के बाद पंडित जी से मिले और उनसे कहा कि महाराज !कथा में रूपए पैदा हो रहें कि नहीं?पंडित जी बोले श्रोता बहुत कम आतें हैं तो रूपए कैसे पैदा हों. सेठ ने कहा कि मेरी एक शर्त है कथा में जितना पैसा आये वह मेरे को दे देना और मैं आप को पचास रूपए दे दूंगा. पंडित जी ने सोचा कि उसके पास कौन से इतने पैसे आतें हैं पचास रूपए तो मिलेंगे, पंडित जी ने सेठ कि बात मान ली उन दिनों पचास रूपए बहुत सा धन होता था . इधर सेठ कि नीयत थी कि भगवान् कि आज्ञा का पालन करने हेतु हनुमान जी सौ रूपए पंडित जी को जरूर देंगे. मुझे सीधे सीधे पचास रूपए का फैयदा हो रहा है. जो लोभी आदमी होते हैं वे पैसे के बारे में ही सोचते हैं. सेठ ने भगवान् जी कि बातें सुनकर भी भक्तिकि और ध्यान नहीं दिया बल्कि पैसे कि और आकर्षित हो गए.
अब सेठ जी कथा के उपरांत पंडित जी के पास गए और उनसे कहने लगे कि कितना रुपया आया है , सेठ के मन विचार था कि हनुमान जी सौ रूपए तो भेंट में जरूर दिलवाएंगे , मगर पंडित जी नहा कहा कि पञ्च सात रूपए ही आयें हैं. अब सेठ को शर्त के मुताबिक पचास रूपए पंडित जी को देने पड़े. सेठ को हनुमान जी पर बहुत ही गुस्सा आ रहा था कि उन्हों ने पंडित जी को सौ रूपए नहीं दिए ! वह मंदिर में गया और हनुमान जी कि मूर्ती पर घूँसा मारा. घूँसा मरते ही सेठ का हाथ मूर्ती पर चिपक गया अब सेठ जोर लगाये अपना हाथ छुड़ानेके लिए पर नाकाम रहा हाथ हनुमान जी कि पकड़ में ही रहा . हनुमान जी किसीको पकड़ लें तो वह कैसे छूट सकता है.सेठ को फिर आवाज सुनाई दी. उसने धयान से सुना, भगवन हनुमान जी सेपूछ रहे थे कि तुमने ब्रह्मण को सौ रूपए दिलाये कि नहीं ? हनुमान जीने कहा 'महाराज पचास रूपए तो दिला दिए हैं, बाकी पचास रुपयों के लिए सेठ को पकड़ रखा है ! वह पचास रूपए दे देगा तो छोड़ देंगे'
सेठ ने सुना तो विचार किया कि मंदिर में लोग आकर मेरे को देखें गे तो बड़ी बेईज्ज़ती हो गी ! वह चिल्लाकर बोला 'हनुमान जी महाराज ! मेरे को छोड़ दो, मैं पचास रूपय दे दूं गा !' हनुमान जी ने सेठ को छोड़ दिया! सेठ ने जाकर पंडित जी को पचास रूपए दे दिए....

Sunday, 28 April 2013

29.04.13


एक गांव में एक आदमी अपने तोते
के साथ रहता था,
एक बार जब वह आदमी किसी काम से
दूसरे गांव जा रहा था,
तो उसके तोते ने उससे कहा –
मालिक, जहाँ आप जा रहे हैं
वहाँ मेरा गुरु-तोता रहता है.
उसके लिए मेरा एक संदेश ले
जाएंगे ?
क्यों नहीं ! – उस आदमी ने जवाब
दिया,

तोते ने कहा मेरा संदेश है-:
आजाद हवाओं में सांस लेने
वालों के नाम एक बंदी तोते
का सलाम |

वह आदमी दूसरे गांव पहुँचा और
वहाँ उस गुरु-तोते
को अपने प्रिय तोते का संदेश
बताया, संदेश सुनकर गुरु-
तोता तड़पा, फड़फड़ाया और मर
गया ..
जब वह आदमी अपना काम समाप्त कर
वापस घर आया, तो उस तोते ने
पूछा कि क्या उसका संदेश गुरु-
तोते तक पहुँच गया था,

आदमी ने तोते को पूरी कहानी बताई
कि कैसे उसका संदेश सुनकर
उसका गुरु तोता तत्काल मर
गया था |
यह बात सुनकर वह तोता भी तड़पा,
फड़फड़ाया और मर गया |

उस आदमी ने बुझे मन से तोते
को पिंजरे से बाहर निकाला और
उसका दाह-संस्कार करने के लिए ले
जाने लगा, जैसे ही उस
आदमी का ध्यान थोड़ा भंग हुआ,

वह तोता तुरंत उड़ गया और जाते
जाते उसने अपने मालिक को बताया –
"मेरे गुरु-तोते ने मुझे संदेश
भेजा था कि अगर
आजादी चाहते हो तो पहले
मरना सीखो". . . . . . . .

बस आज का यही सन्देश कि अगर
वास्तव में आज़ादी की हवा में
साँस
लेना चाहते हो तो उसके लिए
निर्भय होकर मरना सीख लो . . .

क्योकि साहस की कमी ही हमें झूठे
और आभासी लोकतंत्र के
पिंजरे में कैद कर के रखती हैं".

Saturday, 27 April 2013

28.04.13


सिकंदर महान जब भारत से लौटने को हुआ तो उसे याद आया कि उसकी जनता ने उसे अपने साथ एक भारतीय योगी को लाने के लिए कहा था। उसने योगीकी खोज़ प्रारंभ कर दी। उसे जंगल में पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे हुए एक योगी दिखायी दिये। सिकंदर, शाति से उनके सामने जाकर बैठ गया।
जब योगी ने अपनी आँखें खोलीं, तो सिकंदर ने पाया कि उनके इर्द-गिर्द एक दैवीय प्रकाश फैलगया है। उसने योगी से कहा -"क्या आप मेरे साथ यूनान चलना पसंद करेंगे ? मैं आपको सब कुछ दूँगा। मेरे महल का एक भाग आपके लिए आरक्षित रहेगा और आपकी सेवा में हर समय सेवक तैयार रहेंगे।'
योगी ने मुस्कराते हुए कहा -"मेरी कोई आवश्यकतायें नहीं हैं।मुझे किसी भी सेवक की आवश्यकता नहीं है और मेरी यूनान जाने की भी कोई इच्छा नहीं है।'
योगी द्वारा दो-टूक मना करने पर सिकंदर नाराज हो गया। वह क्रोधित हो उठा। अपनी तलवार निकालते हुए उसने योगी से कहा, "क्या तुम जानते हो कि मैं तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े भी कर सकता हूँ ? मैं विश्वविजेता सिकंदर महान हूँ।'
योगी ने पुनः शांत भाव से मुस्कराते हुए कहा -"तुमने दो बातें कहीं हैं। पहली यह कि तुम मुझे कई टुकड़ों में काट सकते हो। नहीं, तुम कभी मुझे टुकड़ों में नहीं काट सकते। हाँ, तुम सिर्फ मेरे शरीर को काट सकते हो जिसे मैं सिर्फ एक आभूषण की तरह धारण किए हुए हूँ। मैं अमर और नश्वर हूँ। दूसरी बात तुमने यह कही है कि तुम विश्व-विजेता हो। मेरे विचार से तुम केवल मेरे गुलाम के गुलाम हो।'
अचंभित सिकंदर ने पूछा - "मैं कुछसमझा नहीं ?'
तब योगी ने कहा - "क्रोध मेरा गुलाम है। यह पूर्णतः मेरे नियंत्रण में है। लेकिन तुम क्रोध के गुलाम हो। कितनी आसानी से तुम क्रोधित हो जाते हो। इसलिये तुम मेरे गुलाम के गुलाम हुये।

Friday, 26 April 2013

27.04.13


सलाह : 'यह या वह' ........

एक धनी व्यक्ति का बटुआ बाजार में गिर गया। उसे घर पहुंच कर इस बात का पता चला। बटुए में जरूरी कागजों के अलावा कई हजार रुपये भी थे। फौरन ही वो मंदिर गया और प्रार्थना करने लगा कि बटुआ मिलने पर प्रसाद चढ़ाउंगा, गरीबों को भोजन कराउंगा आदि। संयोग से वो बटुआ एक बेरोजगार युवक को मिला। बटुए पर उसके मालिक का नाम लिखा था। इसलिए उस युवक ने सेठ के घर पहुंच कर बटुआ उन्हें दे दिया। सेठ ने तुरंत बटुआ खोल कर देखा। उसमें सभी कागजात और रुपये यथावत थे।
सेठ ने प्रसन्न हो कर युवक की ईमानदारी की प्रशंसा की और उसे बतौर इनाम कुछ रुपये देने चाहे, जिन्हें लेने से युवक ने मना कर दिया। इस पर सेठ ने कहा, अच्छा कल फिर आना। युवक दूसरे दिन आया तो सेठ ने उसकी खूब खातिर की। युवक चला गया। युवक के जाने के बाद सेठ अपनी इस चतुराई पर बहुत प्रसन्न था कि वह तो उस युवक को सौ रुपये देना चाहता था। पर युवक बिना कुछ लिए सिर्फ खा -पी कर ही चला गया। उधर युवक के मन में इन सब का कोई प्रभाव नहीं था, क्योंकि उसके मन में न कोई लालसा थी और न ही बटुआ लौटाने के अलावा और कोई विकल्प ही था। सेठ बटुआ पाकर यह भूल गया कि उसने मंदिर में कुछ वचन भी दिए थे।
सेठ ने अपनी इस चतुराई का अपने मुनीम और सेठानी से जिक्र करते हुए कहा कि देखो वह युवक कितना मूर्ख निकला। हजारों का माल बिना कुछ लिए ही दे गया। सेठानी ने कहा, तुम उल्टा सोच रहे हो। वह युवक ईमानदार था। उसके पास तुम्हारा बटुआ लौटा देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। उसने बिना खोले ही बटुआ लौटा दिया। वह चाहता तो सब कुछ अपने पास ही रख लेता। तुम क्या करते? ईश्वर ने दोनों की परीक्षा ली। वो पास हो गया, तुम फेल। अवसर स्वयं तुम्हारे पास चल कर आया था, तुमने लालच के वश उसे लौटा दिया। अब अपनी गलती को सुधारो और जाओ उसे खोजो। उसके पास ईमानदारी की पूंजी है, जो तुम्हारे पास नहीं है। उसे काम पर रख लो।
सेठ तुरत ही अपने कर्मचारियों के साथ उस युवक की तलाश में निकल पड़ा। कुछ दिनों बाद वह युवक किसी और सेठ के यहां काम करता मिला। सेठ ने युवक की बहुत प्रशंसा की और बटुए वाली घटना सुनाई, तो उस सेठ ने बताया, उस दिन इसने मेरे सामने ही बटुआ उठाया था। मैं तभी अपने गार्ड को लेकर इसके पीछे गया। देखा कि यह तुम्हारे घर जा रहा है। तुम्हारे दरवाजे पर खड़े हो कर मैंने सब कुछ देखा व सुना। और फिर इसकी ईमानदारी से प्रभावित होकर इसे अपने यहां मुनीम रख लिया। इसकी ईमानदारी से मैं पूरी तरह निश्चिंत हूं।
बटुए वाला सेठ खाली हाथ लौट आया। पहले उसके पास कई विकल्प थे , उसने निर्णय लेने में देरी की। उस ने एक विश्वासी पात्र खो दिया। युवक के पास अपने सिद्धांत पर अटल रहने का नैतिक बल था। उसने बटुआ खोलने के विकल्प का प्रयोग ही नहीं किया। युवक को ईमानदारी का पुरस्कार मिल गया। दूसरे सेठ के पास निर्णय लेने की क्षमता थी। उसे एक उत्साही , सुयोग्य और ईमानदार मुनीम मिल गया।
एक बहुत बड़े विचारक सोरेन कीर्कगार्ड ने अपनी पुस्तक आइदर - और अर्थात ' यह या वह ' में लिखा है कि जिन वस्तुओं के विकल्प होते हैं , उन्हीं में देरी होती है। विकल्पों पर विचार करना गलत नहीं है। लेकिन विकल्पों पर ही विचार करते रहना गलत है। हम ' यह या वह ' के चक्कर में फंसे रह जाते हैं। किसी संत ने एक जगह लिखा है , विकल्पों में उलझ कर निर्णय पर पहुंचने में बहुत देर लगाने से लक्ष्य की प्राप्ति कठिन हो जाती है...


Thursday, 25 April 2013

26.04.13


"दर्पण"

पुराने जमाने की बात है। एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा भावना से बहुत प्रभावित हुए। विद्या पूरी होने के बाद शिष्य को विदा करते समय उन्होंने आशीर्वाद के रूप में उसे एक ऐसा दिव्य दर्पण भेंट किया, जिसमें व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी।

शिष्य उस दिव्य दर्पण को पाकर प्रसन्न हो उठा। उसने परीक्षा लेने की जल्दबाजी में दर्पण का मुंह सबसे पहले गुरुजी के सा
मने कर दिया। वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण परिलक्षित हो रहे थे।

इससे उसे बड़ा दुख हुआ। वह तो अपने गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से रहित सत्पुरुष समझता था।
दर्पण लेकर वह गुरुकूल से रवाना हो गया। उसने अपने कई मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर परीक्षा ली। सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया। और तो और अपने माता व पिता की भी वह दर्पण से परीक्षा करने से नहीं चूका।

उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा, तो वह हतप्रभ हो उठा। एक दिन वह दर्पण लेकर फिर गुरुकुल पहुंचा। उसने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा, ‘गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण कीमदद से देखा कि सबके दिलों में नाना प्रकार के दोष हैं।’ तब गुरु जी ने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया।

शिष्य दंग रह गया. क्योंकि उसके मन के प्रत्येक कोने में राग,द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण विद्यमान थे। गुरुजी बोले, ‘वत्स यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था दूसरों के दुर्गुण देखने के लिए नहीं। जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह दूसरों के दुर्गुण जाननेमें ज्यादा रुचि रखता है। वह स्वयं को सुधारने के बारे में नहीं सोचता। इस दर्पण की यही सीख है जो तुम नहीं समझ सके।’

शिक्षा - हमे दूसरों के दुर्गुण देखने से पहले खुद के दुर्गुण देखने चाहिए। स्वयं को सुधारने के बारे में सोचना चाहिए..

Wednesday, 24 April 2013

25.04.13


मन की सोच -

अत्यंत गरीब परिवार का एक बेरोजगार युवक नौकरी की तलाश में किसी दूसरे शहर जाने के लिए रेलगाड़ी से सफ़र कर रहा था | घर में कभी-कभार ही सब्जी बनती थी, इसलिए उसने रास्ते में खाने के लिए सिर्फ रोटीयां ही रखी थी |

आधा रास्ता गुजर जाने के बाद उसे भूख लगने लगी, और वह टिफिन में से रोटीयां निकाल कर खाने लगा | उसके खाने का तरीका कुछ अजीब था , वह रोटी का एक टुकड़ा लेता और उसे टिफिन के अन्दर कुछ ऐसे डालता मानो रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा हो, जबकि उसके पास तो सिर्फ रोटीयां थीं!!

उसकी इस हरकत को आस पास के और दूसरे यात्री देख कर हैरान हो रहे थे | वह युवक हर बार रोटी का एक टुकड़ा लेता और झूठमूठ का टिफिन में डालता और खाता | सभी सोच रहे थे कि आखिर वह युवक ऐसा क्यों कर रहा था |आखिरकार एक व्यक्ति से रहा नहीं गया और उसने उससे पूछ ही लिया की भैया तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, तुम्हारे पास सब्जी तो है ही नहीं फिर रोटी के टुकड़े को हर बार खाली टिफिन में डालकर ऐसे खा रहे हो मानो उसमे सब्जी हो |

तब उस युवक ने जवाब दिया, “भैया , इस खाली ढक्कन में सब्जी नहीं है लेकिन मै अपने मन में यह सोच कर खा रहा हू की इसमें बहुत सारा अचार है, मै अचार के साथ रोटी खा रहा हू |”

फिर व्यक्ति ने पूछा , “खाली ढक्कन में अचार सोच कर सूखी रोटी को खा रहे हो तो क्या तुम्हे अचार का स्वाद आ रहा है ?”

“हाँ, बिलकुल आ रहा है , मै रोटी के साथ अचार सोचकर खा रहा हूँ और मुझे बहुत अच्छा भी लग रहा है|”, युवक ने जवाब दिया|

Tuesday, 23 April 2013

24.04.13


बहुत साल पहले की बात है एक लड़का था.
उम्र तकरीबन आठ-नौ साल रही होगी उस समय उसकी. एक शाम वह तेजी से लपका हुआ घर की ओर जा रहा था. दोनों हाथ उसने अपने सीने पर कस कर जकड़ रखे थे और हाथों में कोई चीज छिपा रखी थी. साँस उसकी तेज चल रही थी. घर पहुँच कर वह सीधा अपने दादा के पास पहुँचा |
बाबा, देखो आज मुझे क्या मिला ?
उसने दादा के हाथ में पर्स की शक्ल का एक छोटा सा बैग थमा दिया |
ये कहाँ मिला तुझे बेटा ?
खोल कर तो देखो बाबा, कितने सारे रुपये
हैं इसमें।
इतने सारे रुपये? कहाँ से लाया है तू इसे?
बाबा सड़क किनारे मिला. मेरे पैर से ठोकर
लगी तो मैंने उठाकर देखा. खोला तो रुपये
मिले. कोई नहीं था वहाँ मैं इसे उठा लाया.
तूने देखा वहाँ ढ़ंग से कोई खोज
नहीं रहा था इसे ?
नहीं बाबा वहाँ कोई भी नहीं था. आप और
बाबूजी उस दिन पैसों की बात कर रहे थे
अब तो हमारे बहुत सारे काम हो जायेंगे।
पर बेटा ये हमारा पैसा नहीं है.
पर बाबा मुझे तो ये सड़क पर मिला अब
तो ये मेरा ही हुआ.
दादा के माथे पर चिंता की लकीरें उभर
आयीं.
नहीं बेटा, ये तुम्हारा पैसा नहीं है. उस
आदमी के बारे में सोचो जिसका इतना सारा पैसा खो गया है
कौन जाने कितने जरुरी काम के लिये वह इस पैसे को लेकर कहीं जा रहा हो. पैसा खो जाने से उसके सामने कितनी बड़ी परेशानी आ जायेगी. उस दुखी आदमी की आह भी तो इस पैसे से जुड़ी हुयी है। हो सकता है इस पैसे से हमारे कुछ काम हो जायें और कुछ आर्थिक परेशानियाँ इस समय कम हो जायें पर यह पैसा हमारा कमाया हुआ नहीं है, इस पैसे के साथ
किसी का दुख दर्द जुड़ा हो सकता है, इन
सबसे पैदा होने वाली परेशानियों की बात
तो हम जानते नहीं. जाने कैसी मुसीबतें इस पैसे के साथ आकर हमें घेर लें. उस आदमी का दुर्भाग्य था कि उसके हाथ से बैग गिर गया पर वह दुर्भाग्य तो इस पैसे से जुड़ा हुआ है ही. हमें तो इसे इसके असली मालिक के पास पहुँचाना ही होगा.
किस्सा तो लम्बा है.
संक्षेप में इतना बता दूँ
कि लड़के के पिता और दादा ने पैसा उसके
मालिक क पँहुचा दिया.
इस घटना के कुछ ही दिनों बाद की बात है.
लड़का अपने दादा जी के साथ टहल
रहा था.
चलते हुये लड़के को रास्ते में दस पैसे मिले, उसने झुककर सिक्का उठा लिया.
उसने दादा की तरफ देखकर पूछा,"बाबा,
इसका क्या करेंगे क्या इसे यहीं पड़ा रहने दें अब इसके मालिक को कैसे ढ़ूँढ़ेंगे ?”
दादा ने मुस्कुरा कर कहा, "हमारे देश
की मुद्रा है बेटा नोट छापने, सिक्के बनाने
में देश का पैसा खर्च होता है. इसका सम्मान करना हर देशवासी का कर्तव्य है. इसे रखलो.
कहीं दान-पात्र में जमा कर देंगे.
बाबा, इसके साथ इसके मालिक की आह
नहीं जुड़ी होगी ?
बेटा, इतने कम पैसे खोने वाले का दुख भी कम होगा. इससे उसका बहुत बड़ा काम सिद्ध नहीं होने वाला था. हाँ तुम्हारे लिये इसे भी रखना गलत है | इसे दान-पात्र में डाल दो, किसी अच्छे काम को करने में इसका उपयोग हो जायेगा |

Monday, 22 April 2013

23.04.13


एक गाँव में एक बूढा़ किसान रहता था ।

वह बहुत गरीब था, लेकिन फ़िर भी उसके पडोसी उससे बहुत जलते थे,

क्योंकि उस बूढे के पास एक शानदारसफ़ेद घोडा था ।

अनेक बार वहाँ के राजा ने किसान को उस घोडे को खरीदने के लिये

आकर्षक कीमत देने की पेशकश की थी,

लेकिन हमेशा ही उसने राजा को मना कर दिया था ।

किसान का कहना था, “यह घोडा मात्र एक जानवर नहीं है,

यह मेरा मित्र है, भला मित्र को कोई बेचता है ?”

उस किसान ने बेहद गरीबी के बावजूद घोडे को नहीं बेचा ।

एक दिन सुबह उसने देखा कि घोडा अपने अस्तबल से गायब हो गया था ।

सब गाँव वाले उसके घर एकत्रित हुए और शोक संवेदना व्यक्त करते हुए कहा,

‘तुम बहुत मूर्ख हो, हम जानते थे

कि इतना शानदार घोडा एक ना एक दिन चोरी हो जायेगा ।

तुम इतने गरीब हो, भला इतने कीमती घोडे की रखवाली कैसे कर सकते थे ??

अब घोडा चला गया, यह दैवीय श्राप और तुम्हारा दुर्भाग्य है”…

बूढे नेजवाब दिया, ‘कृपया भविष्य की बातना करें,

सिर्फ़ यह कहें कि घोडा अपने अस्तबल में नहीं है,

क्योंकि यही सच है, बाकी की सारी बातें और वचन

आपके अपने स्वघोषित निर्णय हैं,

आपको कैसे मालूम कि यह मेरे लिये दुर्भाग्य है ?

आपको क्या मालूम कि भविष्य में क्या होने वाला है ?..

सारे गाँव वाले खूब हँसे, और उन्होंने सोचा बूढा पागलहो गया है ।

लगभग पन्द्रह दिनों के बाद वह घोडा अचानक वापस आ गया,

वह चोरी नहीं हुआ था, बल्कि जंगल की तरफ़ भाग गया था,

और जब वहवापस आया तो अपने साथा १०-१२ जंगली घोडों को भी ले आया ।

फ़िर सारे गाँव वाले एकत्रित हुए और बोले,, महाशय हमें माफ़ कर दीजिये,

आप ही सही थे.. वह आपका दुर्भाग्य नहीं था, बल्कि सौभाग्य था ।

बूढा फ़िर वही बोला, आप लोग फ़िर गलती कर रहे हैं,

हकीकत सिर्फ़ यही है कि मेरे घोडे के वापस आने से मैं खुश हूँ, बस ।

भीड़ शांत हो गई, लेकिन मन ही मन सभी सोचते रहे

कि यह वाकई बूढे का सौभाग्य है ।

उस बूढे किसान का एक जवान पुत्र था,

उसने सोचा कि मैं इन जंगली घोडों को प्रशिक्षित करूँ ।

एक दिन उसका बेटा घोडों को प्रशिक्षित करते समय गिर गया

और उसके पैर टूट गये । एक बार फ़िर गाँव वाले उसके घर गये और बोले,

भाई तुम सही कहते हो, यह दुर्भाग्य ही था,

तुम्हारा एकमात्र जवान बेटा जो कि बुढापे का सहारा था,

अब विकलांग हो गया… तुम तो अबऔर भी गरीब हो गये हो ।

बूढा बोला, क्या आप लोग वर्तमान में नहीं रह सकते ?

आप लोगों को वास्तविकता देखनी चाहिये, सिर्फ़ एक घटना हुई है

और उसे उसी तरह से देखना चाहिये…।

कुछ महीनों के पश्चात उस देश में युद्ध प्रारम्भ हो गया

और राजा ने सभी नौजवानों को जबरदस्ती सेना में भरती कर लिया,

लोग-बाग बडे निराश हो गये,

उनके पुत्रों के वापस आने की सम्भावनायें क्षीण हो गईं ।

वे फ़िर उस किसान से बोले.. तुम्हारा पुत्र भले विकलांग हो,

लेकिन कम से कम बुढापे में वह तुम्हारे पास ही रहेगा ।

उसकी टाँग का टूटना भी एक सौभाग्य ही रहा…

किसान ने अपना माथा ठोंक लिया और बोला..

आप लोग किसी भी घटना का एक ही अंश ही देखते हैं

और उसे सौभाग्य या दुर्भाग्य से जोडकर भविष्य की बातें करने लगते हैं ।

आप लोगों को समझाना बहुत मुश्किल है ।
..............

अब आप सभी संगत प्रेम से बोलिए

|| जय सियाराम जी ||

 

Sunday, 21 April 2013

22.04.13


=>समय निकालकर इस कहानी को जरुर पढेँ<==

एक बेटा पढ़-लिख कर बहुत बड़ा आदमी बन गया । पिता के
स्वर्गवास के बाद माँ ने हर तरह का काम करके उसे इस काबिल
बना दिया था । शादी के बाद पत्नी को माँ से शिकायत रहने
लगी के वो उन के स्टेटस मे फिट नहीं है । लोगों को बताने मे उन्हें
संकोच होता की ये अनपढ़ उनकी सास-माँ है ।
बात बढ़ने पर बेटे ने
एक दिन माँ से कहा-
" माँ ”_मै चाहता हूँ कि मै अब इस काबिल हो गया हूँ कि कोई
भी क़र्ज़ अदा कर सकता हूँ । मै और तुम
दोनों सुखी रहें इसलिए आज तुम मुझ पर किये गए अब तक के सारे
खर्च सूद और व्याज के साथ मिला कर बता दो । मै वो अदा कर
दूंगा । फिर हम अलग-अलग सुखी रहेंगे ।
माँ ने सोच कर उत्तर दिया -
"बेटा”_हिसाब ज़रा लम्बा है,सोच कर बताना पडेगा। मुझे
थोडा वक्त चाहिए ।"
बेटे ना कहा - " माँ _कोई ज़ल्दी नहीं है । दो-चार दिनों मे बता
देना ।"
रात हुई, सब सो गए । माँ ने एक लोटे मे पानी लिया और बेटे के
कमरे मे आई । बेटा जहाँ सो रहा था उसके एक ओर पानी डाल
दिया । बेटे ने करवट ले ली ।माँ ने दूसरी ओर भी पानी डाल
दिया। बेटे ने जिस ओर भी करवट ली_माँ उसी ओर
पानी डालती रही.... तब परेशान होकर बेटा उठ कर खीज कर
बोला कि माँ ये क्या है ? मेरे पूरे बिस्तर को पानी-पानी क्यूँ कर
डाला..?
माँ बोली-
" बेटा, तुने मुझसे पूरी ज़िन्दगी का हिसाब बनानें को कहा था । मै
अभी ये हिसाब लगा रही थी कि मैंने कितनी रातें तेरे बचपन मे तेरे
बिस्तर गीला कर देने से जागते हुए काटीं हैं । ये तो पहली रात है
ओर तू अभी से घबरा गया ..? मैंने अभी हिसाब तो शुरू
भी नहीं किया है जिसे तू अदा कर पाए।"
माँ कि इस बात ने बेटे के ह्रदय को झगझोड़ के रख दिया। फिर
वो रात उसने सोचने मे ही गुज़ार दी । उसे ये अहसास
हो गया था कि माँ का क़र्ज़ आजीवन नहीं उतारा जा सकता।
माँ अगर शीतल छाया है पिता बरगद है जिसके नीचे बेटा उन्मुक्त
भाव से जीवन बिताता है । माता अगर अपनी संतान के लिए हर
दुःख उठाने को तैयार रहती है तो पिता सारे जीवन उन्हें
पीता ही रहता है ।
माँ बाप का क़र्ज़ कभी अदा नहीं किया जा सकता । हम तो बस
उनके किये गए कार्यों को आगे बढ़ाकर अपने हित मे काम कर रहे हैं।
आखिर हमें भी तो अपने बच्चों से वही चाहिए ना...

21.04.13


बडो की सलाह गंभीरता से लेनी चाहिए।
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एक बहुत बड़ा विशाल पेड़ था। उस पर बहुत से हंस रहते थे। उनमें एक बहुत सयाना हंस था। वह बुद्धिमान और बहुत दूरदर्शी था। सब उसका आदर करते'ताऊ'कहकर बुलाते थे। एक दिन उसने एक नन्ही-सी बेल को पेड़ के तने पर बहुत नीचे लिपटते पाया। ताऊ ने दूसरे हंसों को बुलाकर कहा,
"देखो, इस बेल को नष्ट कर दो। एक दिन यह बेल हम सबको मौत के मुँह में ले जाएगी।"
एक युवा हंस हँसते हुए बोला,
"ताऊ, यह छोटी-सी बेल हमें कैसे मौत के मुँह में ले जाएगी?"
सयाने हंस ने समझाया,
"आज यह तुम्हें छोटी-सी लग रही हैं। धीरे-धीरे यह पेड़ के सारे तने को लपेटा मारकर ऊपर तक आएगी। फिर बेल का तना मोटा होने लगेगा और पेड़ से चिपक जाएगा, तब नीचे से ऊपर तक पेड़ पर चढ़ने के लिए सीढ़ी बन जाएगी। कोई भी शिकारी सीढ़ी के सहारे चढ़कर हम तक पहुंच जाएगा और हम मारे जाएँगे।"
दूसरे हंस को यक़ीन न आया,
"एक छोटी सी बेल कैसे सीढ़ी बन जाएगी?"
तीसरा हंस बोला,
"ताऊ, तू तो एक छोटी-सी बेल को खींच कर ज्यादा ही लम्बा कर रहा है।"
किसी ने कहा,"यह ताऊ अपनी अक्ल का रोब डालने के लिए अर्थहीन कहानी गढ़ रहा है।"
इस प्रकार किसी भी हंस ने ताऊ की बात को गंभीरता से नहीं लिया। इतनी दूर तक देख पाने की उनमें अक्ल कहां थी! समय बीतता रहा। बेल लिपटते-लिपटते ऊपर शाखों तक पहुंच गई। बेल का तना मोटा होना शुरु हुआ और सचमुच ही पेड़ के तने पर सीढ़ी बन गई जिस पर आसानी से चढ़ा जा सकता था। सबको ताऊ की बात की सच्चाई नजर आने लगी पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था क्योंकि बेल इतनी मजबूत हो गई थी कि उसे नष्ट करना हंसों के बस की बात नहीं थी। एक दिन जब सब हंस दाना चुगने बाहर गए हुए थे तब एक बहेलिआ उधर आ निकला। पेड़ पर बनी सीढ़ी को देखते ही उसने पेड़ पर चढकर जाल बिछाया और चला गया। साँझ को सारे हंस लौट आए पेड़ पर उतरे तो बहेलिए के जाल में बुरी तरह फंस गए। जब वे जाल में फंस गए और फड़फड़ाने लगे तब उन्हें ताऊ की बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का पता लगा। सब ताऊकी बात न मानने के लिए लज्जित थे और अपने आपको कोस रहे थे। ताऊ सबसे रुष्ट था और चुप बैठा था।
एक हंस ने हिम्मत करके कहा,
"ताऊ, हम मूर्ख हैं लेकिन अब हमसे मुँह मत फेरो।'
दूसरा हंस बोला,
"इस संकट से निकालने की तरकीब तू ही हमें बता सकता हैं। आगे हम तेरी कोई बात नहीं टालेंगे।"
सभी हंसों ने हामी भरी तब ताऊ ने उन्हें बताया,
"मेरी बात ध्यान से सुनो। सुबह जब बहेलिया आएगा, तब मुर्दा होने का नाटक करना। बहेलिया तुम्हें मुर्दा समझकर जाल से निकाल कर जमीन पर रखता जाएगा। वहां भी मरे समान पड़े रहना जैसे ही वह अन्तिम हंस को नीचे रखेगा, मैं सीटी बजाऊंगा। मेरी सीटी सुनते ही सब उड़ जाना।"
सुबह बहेलिया आया। हंसो ने वैसा ही किया, जैसा ताऊ ने समझाया था। सचमुच बहेलिया हंसों को मुर्दा समझकर जमीन पर पटकता गया। सीटी की आवाज के साथ ही सारे हंस उड़ गए। बहेलिया अवाक् होकर देखता रह गया।
 — 

Friday, 19 April 2013

20.04.13


खड़े होकर खाना क्यों नहीं खाना चाहिए!

भोजन से ही हमारे शरीर को कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हमारे देश में हर छोटे से छोटे या बड़े से बड़े कार्य से जुड़ी कुछ परंपराए बनाई गई हैं।
वैसे ही भोजन करने से जुड़ी हुई भी कुछ मान्यताएं हैं। भोजन हमारे जीवन की सबसे आवश्यक जरुरतों में से एक है। खाना ही हमारे शरीर को जीने की शक्ति प्रदान करता है।हमारे पूर्वजो ने जो भी परंपरा बनाई थी उसके पीछे कोई गहरी सोच थी।

ऐसी ही एक परंपरा है खड़े होकर या कुर्सी पर बैठकर भोजन ना करने की क्योंकि ऐसा माना जाता है कि खड़े होकर भोजन करने से कब्ज की समस्या होती है। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि जब हम खड़े होकर भोजन करते हैं तो उस समय हमारी आंते सिकुड़ जाती हैं। और भोजन ठीक से नहीं पच पाता है।

इसीलिए जमीन पर सुखासन में बैठकर खाना खाने की परंपरा बनाई गई। हम जमीन पर सुखासन अवस्था में बैठकर खाने से कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त कर शरीर को ऊर्जावान और स्फूर्तिवान बना सकते हैं।

जमीन पर बैठकर खाना खाते समय हम एक विशेष योगासन की अवस्था में बैठते हैं, जिसे सुखासन कहा जाता है। सुखासन पद्मासन का एक रूप है। सुखासन से स्वास्थ्य संबंधी वे सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो पद्मासन से प्राप्त होते हैं।बैठकर खाना खाने से हम अच्छे से खाना खा सकते हैं। इस आसन से मन की एकाग्रता बढ़ती है। जबकि इसके विपरित खड़े होकर भोजन करने से तो मन एकाग्र नहीं रहता है।इस तरह खाना खाने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों होती हैं

Thursday, 18 April 2013

19.04.13


एक पत्थर काटने वाला मजदूर अपनी दिहाड़ी करके अपना बिता रहा था, 

पर मन ही मन असंतुष्ट था। एक दिन ऐसे ही उसे लगा कि 

उसको कोई शक्ति प्राप्त हो गयी है जिससे उसकी सारी इच्छा पूरी हो सकती है। 

शाम को एक व्यापारी के बड़े घर के सामने से गुजरते हुए 

उसने व्यापारी के ठाट बाठ देखे, गाड़ी घोड़ा, घर की सजावट देखी। 

अब उसके मन में इच्छा हुयी कि क्या पत्थर काटते काटते जिन्दगी गुजारनी है।

क्यों न वो व्यापारी हो जाए। अचानक उसकी इच्छा पूरी हो गयी,

धन प्राप्त हो गया, नया घर, नयी गाडी, सेवक सेविका, मतलब पूरा ठाटबाट।

एक दिन एक बड़ा सेनापति उसके सामने से निकला अपने सैनिको के साथ,

उसने देखा कि क्या बात है? कोई कितना भी धनी क्यों न हो,

इस सेनापति के आगे सर झुकाता है। मुझे सेनापति बनना है।

बस शक्ति से वो सेनापति बन गया।

अब वो गर्व से बीच में बने सिंहासन पर बैठ सकता था,

जनता उसके सामने दबती थी। सैनिको को वो मनचाही का आदेश दे सकता था।

पर एक दिन तपती धुप में उसे गरमी के कारण उठना पडा,

क्रोध से उसने सूर्य को देखा। पर सूर्य पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडा,

वो मस्ती से चमकता रहा। ये देखकर उसके मन में आया,

अरे सूर्य तो सेनापति से भी ज्यादा ताकतवर है,

देखो इस पर कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है। उसने इच्छा की कि वो सूर्य बन जाए।

देखते ही देखते वो सूर्य बन गया।

अब सूर्य बनकर उसकी मनमानी चलने लगी,

अपनी तपन से उसने संसार को बेहाल कर दिया।

किसानो की फसल तक जल गयी,

इसको देख कर उसे अपनी शक्ति का अहसास होता रहा

और वो प्रसन्न हो गया ।

पर अचानक एक दिन एक बादल का टुकडा आकर

उसके और धरती के बीच में खडा हो गया।

ओह ये क्या, एक बादल का टुकडा सूर्य की शक्ति से बड़ा है,

क्यों न मैं बादल बन जाऊं। अब वो बादल बन गया।

बादल बन कर जोर से गरज कर वो अपने को संतुष्ट समझता रहा।

जोर से बरसात भी करने लगा ।

अचानक वायु का झोंका आया और उसको इधर से उधर धकेलने लगा,

अरे ये क्या हवा ज्यादा शक्तिशाली, क्यों न मैं हवा बन जाऊं। बन गया वो हवा।

हवा बन कर फटाफट पृथिवी का चक्कर लगाने लगा।

पर फिर गड़बड़ हो गयी, एक पत्थर सामने आ गया। उसको वो डिगा नहीं पाया।

सोचा चलो पत्थर शक्तिशाली है मैं पत्थर बन जाता हूँ। बन गया पत्थर।

पर ये भी ज्यादा देर नहीं चल पाया।

क्योंकि एक पत्थर काटने वाला आया और उसे काटने लगा।

फिर सोच में पड़ गया कि ओह पत्थर काटने वाला ज्यादा शक्तिशाली है।

ओह यह मैंने क्या किया। मैं तो पत्थर काटने वाला ही था !!!

इतनी देर में उसकी नींद खुल गयी और स्वप्न भंग हो गया।

पर फर्क था - वो अपने से संतुष्ट था।

शिक्षा - हमें अपने अन्दर की शक्ति और क्षमता का पता नहीं होता,

और जो दीखते किसी काम के नहीं, वही किसी न किसी काम के जरूर होते हैं।

बस अपने को पहचानिए । अपनी लाइन को पहचानिए।

"प्रेम से बोलो"

!! जय सियाराम जी !!

Wednesday, 17 April 2013

18.04.13


A=Ambe B=Bhawani C=Chamunda D=Durga E=Ekrupi F=Farsadharni G=Gayatri H=Hinglaj . I=Indrani J=Jagdamba K=Kali , L=Laxmi , M=Mahamaya , N=Narayni , O=Omkarni , P=Padma, Q=Qatyayani , R=Ratnapriya, S=Shitla ,T=Tripursundari , U=Uma, V=Vaishnavi , W=Warahi , Y=Yati, Z =Zyana
ABCD padhte jao? ?JAI MATA DI kahte jao.Happy Navratri

Tuesday, 16 April 2013

17.04.13


बुलाकी एक बहुत मेहनती किसान था। कड़कती धूप में उसने और उसके परिवार के अन्य सदस्यों ने रात दिन खेतों में काम किया और परिणाम स्वरूप बहुत अच्छी फ़सल हुई। अपने हरे भरे खेतों को देख कर उसकी छाती खुशी से फूल रही थी क्योंकि फसल काटने का समय आ गया था। इसी बीच उसके खेत में एक चिड़िया ने एक घौंसला बना लिया था। उसके नन्हें मुन्ने चूज़े अभी बहुत छोटे थे।

एक दिन बुलाकी अपने बेटे मुरारी के साथ खेत पर आया और बोला, "बेटा ऐसा करो कि अपने सभी रिश्तेदारों को निमन्त्रण दो कि वो अगले शनिवार को आकर फ़सल काटने में हमारी सहायता करें।" ये सुनकर चिड़िया के बच्चे बहुत घबराए और माँ से कहने लगे कि हमारा क्या होगा। अभी तो हमारे पर भी पूरी तरह से उड़ने लायक नहीं हुए हैं। चिड़िया ने कहा, "तुम चिन्ता मत करो..

अगले शनिवार को जब बाप बेटे खेत पर पहुचे तो वहाँ कोई भी रिश्तेदार नहीं पहुँचा था। दोनों को बहुत निराशा हुई बुलाकी ने मुरारी से कहा कि लगता है हमारे रिश्तेदार हमारे से ईर्ष्या करते हैं, इसीलिए नहीं आए। अब तुम सब मित्रों को ऐसा ही निमन्त्रण अगले हफ़्ते के लिए दे दो। चिड़िया और उसके बच्चों की वही कहानी फिर दोहराई गई और चिड़िया ने वही जवाब दिया।

अगले हफ़्ते भी जब दोनों बाप बेटे खेत पर पहुचे तो कोई भी मित्र सहायता करने नहीं आया तो बुलाकी ने मुरारी से कहा कि बेटा देखा तुम ने, जो इन्सान दूसरों का सहारा लेकर जीना चहता है उसका यही हाल होता है और उसे सदा निराशा ही मिलती है। अब तुम बाज़ार जाओ और फसल काटने का सारा सामान ले आओ, कल से इस खेत को हम दोनों मिल कर काटेंगे।

चिड़िया ने जब यह सुना तो बच्चों से कहने लगी कि चलो, अब जाने का समय आ गया है - जब इन्सान अपने बाहूबल पर अपना काम स्वयं करने की प्रतिज्ञा कर लेता है तो फिर उसे न किसी के सहारे की ज़रूरत पड़ती है और न ही उसे कोई रोक सकता है। इसी को कहते हैं बच्चो कि, "अपना हाथ जगन्नाथ।"

इस से पहले कि बाप बेटे फसल काटने आएँ, चिड़िया अपने बच्चों को लेकर एक सुरक्षित स्थान पर ले गई....

Monday, 15 April 2013

16.04.13


भगवान नहीं है ईश्वर..

जैसे जैन कैवल्य ज्ञान को प्राप्त व्यक्ति को तीर्थंकर या अरिहंत कहते हैं। बौद्ध संबुद्ध कहते हैं वैसे ही हिंदू भगवान कहते हैं। भगवान का अर्थ है जितेंद्रिय। इंद्रियों को जीतने वाला। भगवान का अर्थ ईश्वर नहीं और जितने भी भगवान हैं वे ईश्वर कतई नहीं है। ईश्वर या परमेश्वर संसार की सर्वोच्च सत्ता है।

भगवान शब्द संस्कृत के भगवत शब्द से बना है। जिसने पांचों इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा जिसकी पंचतत्वों पर पकड़ है उसे भगवान कहते हैं। भगवान शब्द का स्त्रीलिंग भगवती है। वह व्यक्ति जो पूर्णत: मोक्ष को प्राप्त हो चुका है और जो जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर कहीं भी जन्म लेकर कुछ भी करने की क्षमता रखता है वह भगवान है। परमहंस है।

भगवान को ईश्‍वरतुल्य माना गया है इसीलिए इस शब्द को ईश्वर, परमात्मा या परमेश्वर के रूप में भी उपयोग किया जाता है, लेकिन यह उचित नहीं है।

भगवान शब्द का उपयोग विष्णु और शिव के अवतारों के लिए किया जाता है। दूसरा यह कि जो भी आत्मा पांचों इंद्रियो और पंचतत्व के जाल से मुक्त हो गई है वही भगवान कही गई है। इसी तरह जब कोई स्त्री मुक्त होती है तो उसे भगवती कहते हैं। भगवती शब्द का उपयोग माँ दुर्गा के लिए भी किया जाता है। इसे ही भागवत मार्ग कहा गया है।

भगवान (संस्कृत : भगवत्) सन्धि विच्छेद: भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ
भ = भूमि
अ = अग्नि
ग = गगन
वा = वायु
न = नीर
भगवान पंच तत्वों से बना/बनाने वाला है।

यह भी जानिए....
भगवान्- ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य- ये गुण अपनी समग्रता में जिस गण में हों उसे 'भग' कहते हैं। उसे अपने में धारण करने से वे भगवान् हैं। यह भी कि उत्पत्ति, प्रलय, प्राणियों के पूर्व व उत्तर जन्म, विद्या और अविद्या को एक साथ जानने वाले को भी भगवान कहते हैं

Sunday, 14 April 2013

15.04.13


माता के नौ दिनों में क्या करें?
नवरात्रि के नौ दिनों में यह कार्य अवश्य करें


नवरात्रि में हम जितनी पवित्रता बरतते हैं देवी उतनी ही प्रसन्न होती हैं। कई घरों में बड़े ही नियम से पूजा-पाठ होता है। कुछ लोग बहुत कठोर नियम करते हैं। इन परंपराओं में ही तो हमारे संस्कार बसे हैं।

नवरात्रि के नौ दिनों में यह कार्य अवश्य करें : -

* नंगे पैर रहना।

* नौ दिनों तक व्रत रखना।

* प्रतिदिन मंदिर जाना।

* देवी को जल अर्पित करना।

* कन्या भोजन कराना।

* बिना लहसुन-प्याज का भोजन बनना।

* जवारे रखना।

* नौ दिनों तक देवी का विशेष श्रृंगार करना।

* अष्टमी-नवमीं पर विशेष पूजा।

* अखंड ज्योति जलाना, आदि

Saturday, 13 April 2013

14.04.13


भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को दीक्षा देने के उपरांत उन्हें धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए अन्य नगरों और गावों में जाने की आज्ञा दी। बुद्ध ने सभी शिष्यों से पूछा – “तुम सभी जहाँ कहीं भी जाओगे वहां तुम्हें अच्छे और बुरे – दोनों प्रकार के लोग मिलेंगे। अच्छे लोग तुम्हारी बातों को सुनेंगे और तुम्हारी सहायता करेंगे। बुरे लोग तुम्हारी निंदा करेंगे और गालियाँ देंगे। तुम्हें इससे कैसा लगेगा?”
हर शिष्य ने अपनी समझ से बुद्ध के प्रश्न का उत्तर दिया। एक गुणी शिष्य ने बुद्ध से कहा – “मैं किसी को बुरा नहीं समझता। यदि कोई मेरी निंदा करेगा या मुझे गालियाँ देगा तो मैं समझूंगा कि वह भला व्यक्ति है क्योंकि उसने मुझे सिर्फ़ गालियाँ ही दीं, मुझपर धूल तो नहीं फेंकी।”

बुद्ध ने कहा – “और यदि कोई तुमपर धूल फेंक दे तो?”

“मैं उन्हें भला ही कहूँगा क्योंकि उसने सिर्फ़ धूल ही तो फेंकी, मुझे थप्पड़ तो नहीं मारा।”

“और यदि कोई थप्पड़ मार दे तो क्या करोगे?”

“मैं उन्हें बुरा नहीं कहूँगा क्योंकि उन्होंने मुझे थप्पड़ ही तो मारा, डंडा तो नहीं मारा।”

“यदि कोई डंडा मार दे तो?”

“मैं उसे धन्यवाद दूँगा क्योंकि उसने मुझे केवल डंडे से ही मारा, हथियार से नहीं मारा।”

“लेकिन मार्ग में तुम्हें डाकू भी मिल सकते हैं जो तुमपर घातक हथियार से प्रहार कर सकते हैं।”

“तो क्या? मैं तो उन्हें दयालु ही समझूंगा, क्योंकि वे केवल मारते ही हैं, मार नहीं डालते।”

“और यदि वे तुम्हें मार ही डालें?”

शिष्य बोला – “इस जीवन और संसार में केवल दुःख ही है। जितना अधिक जीवित रहूँगा उतना अधिक दुःख देखना पड़ेगा। जीवन से मुक्ति के लिए आत्महत्या करना तो महापाप है। यदि कोई जीवन से ऐसे ही छुटकारा दिला दे तो उसका भी उपकार मानूंगा।”

शिष्य के यह वचन सुनकर बुद्ध को अपार संतोष हुआ। वे बोले – तुम धन्य हो। केवल तुम ही सच्चे साधु हो। सच्चा साधु किसी भी दशा में दूसरे को बुरा नहीं समझता। जो दूसरों में बुराई नहीं देखता वही सच्चा परिव्राजक होने के योग्य है। तुम सदैव धर्म के मार्ग पर चलोगे।”


Friday, 12 April 2013

13.04.13


एक हवाई जहाज आसमान की ऊंचाइयों में उड रहा था कि अचानक अपना संतुलन खोकर इधर उधर लहराने लगा.. सभी यात्री अपनी मृत्यु को समीप जान डर के मारे चीखने चिल्लाने लगे सिवाय एक बच्ची के जो मुस्कुराते हुए चुपचाप खिलोने से खेल रही थी.... कुछ देर बाद हवाई जहाज सकुशल, सुरक्षित उतरा और यात्रियों ने राहत की साँस ली.. एक यात्री ने उत्सुकतावश उस बच्ची से पूछा- "बेटा हम सभी डर के मारे काँप रहे थे पर तुमको डर नहीं लग रहा था.. ऐसा क्यों ?" बच्ची ने जवाब दिया- "क्योंकि इस प्लेन के पायलट मेरे पापा हैं.. मैं जानती थी कि वो मुझे कुछ नहीं होने देंगे" मित्रो, ठीक इसी तरह का विश्वास हमे ईश्वर पर होना चाहिये.. "परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही विपरीत हो जाऐं पर एक ना एक दिन सब ठीक हो जाएगा, क्योंकि भगवान हमें कुछ नहीं होने देंगे ।"

Thursday, 11 April 2013

12.04.13


बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपए और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था कि—मेरी नौकरी छूट गई है; अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा…। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था। पोस्ट करने को मन ही नहीं कर रहा था।

नौ रुपए जा चुके थे। यूँ नौ रुपए कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपए नौ सौ से कम नहीं होते।

कुछ दिन गुजरे। माँ का खत मिला। पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने को लिखा होगा।…लेकिन, खत पढ़कर मैं हैरान रह गया। माँ ने लिखा था—“बेटा, तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनीआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!…पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।”

मैं इसी उधेड़-बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीआर्डर किसने भेजा होगा?

कुछ दिन बाद, एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थीं—आड़ी-तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था—“भाई, नौ रुपए तुम्हारे और इकतालीस रुपए अपनी ओर से मिलाकर मैंने तुम्हारी माँ को मनीआर्डर भेज दिया है। फिकर न करना।…माँ तो सबकी एक-जैसी होती है न। वह क्यों भूखी रहे.....

Wednesday, 10 April 2013

11.04.13


वासंतीय नवरात्री कि ढेर सारी शुभकामनाएं!!
नवरात्री ११ अप्रैल से शुरू
है...महाशक्ति की आराधना का पर्व है “नवरात्री!!
देवी माँ के नौ रूप के बारे में जाने..!!
1. शैल पुत्री- माँ दुर्गा का प्रथम रूप है शैल पुत्री।
पर्वतराज हिमालय के यहाँ जन्म होने से इन्हें शैल
पुत्री कहा जाता है। नवरात्रि की प्रथम
तिथि को शैल पुत्री की पूजा की जाती है। इनके पूजन
से भक्त सदा धन-धान्य से परिपूर्ण पूर्ण रहते हैं।
2. ब्रह्मचारिणी- माँ दुर्गा का दूसरा रूप
ब्रह्मचारिणी है। माँ दुर्गा का यह रूप भक्तों और
साधकों को अनंत कोटि फल प्रदान करने वाली है।
इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और
संयम की भावना जागृत होती है।
3. चंद्रघंटा- माँ दुर्गा का तीसरा स्वरूप चंद्रघंटा है।
इनकी आराधना तृतीया को की जाती है।
इनकी उपासना से सभी पापों से मुक्ति मिलती है।
वीरता के गुणों में वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य
अलौकिक माधुर्य का समावेश होता है व आकर्षण
बढ़ता है।
4. कुष्मांडा- चतुर्थी के दिन
माँ कुष्मांडा की आराधना की जाती है।
इनकी उपासना से सिद्धियों, निधियों को प्राप्त कर
समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु व यश में
वृद्धि होती है।
5. स्कंदमाता- नवरात्रि का पाँचवाँ दिन
स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के
द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी है। माँ अपने
भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती है।
6. कात्यायनी- माँ का छठवाँ रूप कात्यायनी है। छठे
दिन इनकी पूजा-अर्चना की जाती है। इनके पूजन से
अद्भुत शक्ति का संचार होता है। कात्यायनी साधक
को दुश्मनों का संहार करने में सक्षम बनाती है।
इनका ध्यान गोधूली बेला में करना होता है।
7. कालरात्रि- नवरात्रि की सप्तमी के दिन
माँ काली रात्रि की आराधना का विधान है।
इनकी पूजा-अर्चना करने से सभी पापों से
मुक्ति मिलती है व दुश्मनों का नाश होता है। तेज
बढ़ता है।
8. महागौरी- देवी का आठवाँ रूप माँ गौरी है।
इनका अष्टमी के दिन पूजन का विधान है।
इनकी पूजा सारा संसार करता है। महागौरी की पूजन
करने से समस्त पापों का क्षय होकर क्रांति बढ़ती है।
सुख में वृद्धि होती है। शत्रु-शमन होता है।
9. सिद्धिदात्री-
माँ सिद्धिदात्री की आराधना नवरात्रि की नवमी के
दिन किया जाता है। इनकी आराधना से जातक
अणिमा, लघिमा, प्राप्ति,प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व,
सर्वकामावसांयिता, दूर श्रवण, परकाया प्रवेश, वाक्
सिद्धि, अमरत्व, भावना सिद्धि आदि समस्तनव-
निधियों की प्राप्ति होती है।

Tuesday, 9 April 2013

10.04.13


एक बुद्धिमान व्यक्ति ,जो लिखने का शौकीन था ,लिखने के लिए समुद्र के किनारे जा कर बैठ जाता था और फिर उसे प्रेरणायें प्राप्त होती थीं और उसकी लेखनी चल निकलती थी । लेकिन ,लिखने के लिए बैठने से पहले वह समुद्र के तट पर कुछ क्षण टहलता अवश्य था । एक दिन वह समुद्र के तट पर टहल रहा था कि तभी उसे एक व्यक्ति तट से उठा कर कुछ समुद्र में फेंकता हुआ दिखा ।

जब उसने निकट जाकर देखा तो पाया कि वह व्यक्ति समुद्र के तट से छोटी -छोटी मछलियाँ एक-एक करके उठा रहा था और समुद्र में फेंक रहा था । और ध्यान से अवलोकन करने पर उसने पाया कि समुद्र तट पर तो लाखों कि तादात में छोटी -छोटी मछलियाँ पडी थीं जो कि थोडी ही देर में दम तोड़ने वाली थीं ।

अंततः उससे न रहा गया और उस बुद्धिमान मनुष्य ने उस व्यक्ति से पूछ ही लिया ,"नमस्ते भाई ! तट पर तो लाखों मछलियाँ हैं । इस प्रकार तुम चंद मछलियाँ पानी में फेंकने पर मरने वाली मछलियों का अंतर कितना कम कर पाओगे ?

इस पर वह व्यक्ति जो छोटी -छोटी मछलियों को एक -एक करके समुद्र में फेंक रहा था ,बोला,"देखिए !सूर्य निकल चुका है और समुद्र की लहरें अब शांत होकर वापस होने की तैयारी में हैं । ऐसे में ,मैं तट पर बची सारी मछलियों को तो जीवन दान नहीं दे पाऊँगा । " और फिर वह झुका और एक और मछली को समुद्र में फेंकते हुए बोला ,"किन्तु , इस मछली के जीवन में तो मैंने अंतर ला ही दिया ,और यही मुझे बहुत संतोष प्रदान कर रहा है । "

इसी प्रकार ईश्वर ने आप सब में भी यह योग्यता दी है कि आप एक छोटे से प्रयास से रोज़ किसी न किसी के जीवन में छोटा सा अंतर ला सकते हैं । जैसे ,किसी भूखे पशु या मनुष्य को भोजन देना , किसी ज़रूरतमंद की निःस्वार्थ सहायता करना इत्यादि । आप अपनी किस योग्यता से इस समाज को , इस संसार को क्या दे रहे हैं ,क्या दे सकते हैं ,आपको यही आत्मनिरीक्षण करना है और फिर अपनी उस योग्यता को पहचान कर रोज़ किसी न किसी के मुख पर मुस्कान लाने का प्रयास करना है ।

और विश्वास जानिए ,ऐसा करने से अंततः सबसे अधिक लाभान्वित आप ही होंगे । ऐसा करने से सबसे अधिक अंतर आपको अपने भीतर महसूस होगा । ऐसा करने से सबसे अधिक अंतर आपके ही जीवन में पड़ेगा ।

Monday, 8 April 2013

09.04.13


एक आदमी जंगल से गुजर रहा था । उसे
चार स्त्रियां मिली ।

उसने पहली से पूछा - बहन तुम्हारा नाम
क्या हैं ?
उसने कहा "बुद्धि "
तुम कहां रहती हो?
मनुष्य के दिमाग में।

दूसरी स्त्री से पूछा - बहन तुम्हारा नाम क्या हैं ?
" लज्जा "।
तुम कहां रहती हो ?
आंख में ।

तीसरी से पूछा - तुम्हारा क्या नाम हैं ?
"हिम्मत"
कहां रहती हो ?
दिल में ।

चौथी से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
"तंदुरूस्ती"
कहां रहती हो ?
पेट में।

वह आदमी अब थोडा आगे बढा तों फिर उसे चार पुरूष मिले।

उसने पहले पुरूष से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
" क्रोध "
कहां रहतें हो ?
दिमाग में,
दिमाग में तो बुद्धि रहती हैं,
तुम कैसे रहते हो?
जब मैं वहां रहता हुं तो बुद्धि वहां से विदा हो जाती हैं।

दूसरे पुरूष से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
उसने कहां -" लोभ"।
कहां रहते हो?
आंख में।
आंख में तो लज्जा रहती हैं तुम कैसे रहते हो।

जब मैं आता हूं तो लज्जा वहां से प्रस्थान कर जाती हैं ।

तीसरें से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
जबाब मिला "भय"।
कहां रहते हो?
दिल में तो हिम्मत रहती हैं तुम कैसे रहते हो?
जब मैं आता हूं तो हिम्मत वहां से
नौ दो ग्यारह हो जाती हैं।

चौथे से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
उसने कहा - "रोग"।
कहां रहतें हो?
पेट में।
पेट में तो तंदरूस्ती रहती हैं,
जब मैं आता हूं
तो तंदरूस्ती वहां से
रवाना हो जाती हैं।

जीवन की हर विपरीत परिस्थिथि में यदि हम उपरोक्त वर्णित बातो को याद रखे तो कई चीजे टाली जा सकती है

Sunday, 7 April 2013

08.04.13


एक छोटे से गाँव में एक गरीब इमानदार ब्राह्मण था! नौकरी के लिए वोह एक सेठ के पास जाता है, सेठ उसकी माली हालत देखके, उसपे तरस खाके नौकरी पर रख लेता है!
वोह ब्राह्मण इमानदारी से अपना काम शुरू कर देता है! पहले तोह उसे साफ़ सफाई का काम दिया गया था
, जिसे उसने बहुत ही अच्छे से निभाया! वोह दिन भर साफ़ सफाई करता और शाम को सोने से पहले अपने कमरे में रखे एक संदूक को एक बार जरुर खोल के देखता! दूकान के बाकी कर्मचारी उसकी इस हरकत को देखते और परेशान रहते की आखिर इसके इस संदूक में ऐसा क्या है जो यह हर दिन खोल के देखता है और बिना कुछ निकाले वापस बंद करके रख देता है?
फिर किताबी ज्ञान देख के उसे सेठ दूकान के हिसाब - किताब का काम भी दे दिया जाता है! जब उसको यह काम मिलता है तोह वोह बहुत बखूबी से सेठ को सूचित करता है की उनका कारोबार पिछले दो सालो से बहुत ही लाभ में जा रहा है लेकिन सेठ को उनके मुनीम द्वारा यह सूचित किया गया था की उनके कपडे के कारोबार में कोई ज्यादा लाभ नहीं हो रहा! सेठ अपने पिछले मुनीम को बुला के पूछता है की उसने क्यों उसको गलत जानकारी दी? मुनीम घप्लेबाज़ था इसीलिए उसके पास इस प्रशन का कोई उत्तर नहीं था! सेठ उसे नौकरी से निकाल देने का फैसला करता है, लेकिन ब्राह्मण के निवेदन पर उसे दुबारा नौकरी पर रख लेता है! लेकिन ब्राह्मण का वेतन उस मुनीम से ज्यादा करके मुनीम को उस गरीब ब्राह्मण की देखरेख में काम करने का आदेश भी देता है! धीरे धीरे समय बीतता है! गरीब ब्राह्मण अब गरीब नहीं रहता! समाज में उसने अपनी एक साफ़ छवि बना के राखी हुई थी! जो भी सेठ की दूकान में आता वही ब्राह्मण की प्रशंसा करके जाता! समय बदलने के साथ साथ ब्राह्मण ने अपने विचार, अपनी आदत और अपना विनम्र स्वभाव नहीं बदला!
लेकिन दूकान से बाकी कर्मचारियों को उससे बड़ी ईष्या थी! वोह धीरे धीरे एक साजिश के तेहत सेठ का कान भरना शुरू कर देते है! और कहते है की वोह दूकान की तिजोरी से पैसे चोरी करके अपने संदूक में रखता है और हर दिन उसे देख के सोता है! सेठ को भी अपने पिछले मुनीम और अपने बाकी कर्मचारियों की बातो पर विश्वास होने लगता है! एक दिन सेठ ब्राह्मण को बुला कर संदूक के बारे में पूछ लेता है! लेकिन ब्राह्मण उसे संदूक के बारे में कुछ भी कहने से साफ़ मना कर देता है! इससे सेठ को और गुस्सा आता है और उस अपने कर्मचारियों के साथ उस ब्राह्मण के कमरे में जाके उसके संदूक का ताला जबरजस्ती तुड़वाता है! उस संदूक से एक पुराणी मैली पोशाक और एक फटा हुआ जूता मिलता है! पूछे जाने पर ब्राह्मण बताता है की यह वही पोशाक है जो वोह पहली बार पहन के सेठ के पास आया था! यह पोशाक मैंने इसीलिए संभाल के रखी, क्युकी मुझे ज़िन्दगी भर कितना भी यश-अपयश मिले लेकिन मैं कभी भी अपने पुराने दिन ना भूल पाऊं! और इससे रख के मैं ये भी याद रखता हूँ की मेरी कल की ज़िन्दगी कैसी थी और सेठ जी के वजह से आज कैसी है, मैं उनका अहसान हमेशा याद रखु! येही वजह है की मैं हर दिन सोने से पहले इसे जरुर देखता था!
यह सब सुनके सेठ ने उसे गले से लगा लिया और कभी भी छोड़ के ना जाने का वादा भी ले लिया!
और बाकी के कर्मचारियों को दुत्कारते हुए नौकरी से निकाल देता है! लेकिन वोह सभी उस ब्राह्मण का पैर पकड़ के रोने लगते है और ब्राह्मण सेठ जी से उनको दुबारा काम पर रख लेने के लिए निवेदन करता है जिसे वोह सेठ मान जाता है!

Saturday, 6 April 2013

07.04.13


_/\_ जय श्रीकृष्ण _/\_

एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, 'गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है? ' इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई।

'एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया।

कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती। कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना। वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।'

कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा, 'संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं। जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता।'

Friday, 5 April 2013

06.04.13


JAI SHREE RADHE KRISHNA!

एक सेठ अपने बगीचे से बहुत प्रेम करते थे वसंत आते ही उनके बगीचे मे हर तरह के फूलों ने अपनी छटा बिखेर दी सुंदर सुंदर फूलों के बीच जब सेठ जंगली फूलों को देखते तो उदास हो जाते सेठ ने उन जंगली फूलों को उखाड़कर फेंक दिया लेकिन कुछ दिनों बाद वे जंगली फूल फिर उग आए सेठ ने सोचा क्यों न इन पर दवा का प्रयोग किया जाए फिर उन्हें किसी जानकार ने बताया कि इस तरह तो अच्छे फूलों के नष्ट होने का खतरा भी है तब सेठ ने निराश होकर अच्छे अनुभवी माली की सलाह ली माली ने कहा अच्छी चीजों के साथ बुरी चीजें जीवन के अनिवार्य नियमों मे शामिल है जहाँ बहुत सी बातें अच्छी होती है वहाँ कुछ अनचाही दिक्कते और तकलीफ भी पैदा हो जाती है मेरी मानो सेठजी तो तुम इन्हें नजरअंदाज करना सीखों यही खुश होने का सर्वोत्तम उपाय है इन फूलों की तुमने कोई ख्वाहिश तो नही की थी लेकिन अब वेतुम्हारे बगीचे का हिस्सा बन गये है यह जीवन ऐसा ही है इसे स्वीकार करके ही तुम खुश हो सकते हो यदि गुणों का फायदा उठाना चाहते हो तो अवगुणों को बर्दाश्त करना ही होगा..!

Thursday, 4 April 2013

05.04.13


@ जीवन का उद्देश्य @
दूसरो की मदद किये बिना
हम अपनी
मदद नही कर सकते हैं
दूसरो को फायदा पहुचाये बिना
हम खुद को फायदा नही पंहुचा सकते हैं !
दूसरो को खुशहाली दिए बगैर
हम खुद खुशहाल नही हो सकते !!
इसलिए "सीखो ऐसे कि जैसे तुम्हे सदा जीना है, जियो ऐसे कि जैसे तुम्हे कल ही दुनिया से चले जाना है !!

Wednesday, 3 April 2013

04.04.13


गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागु पाय ;
बलिहारी गुरु आपके जिन गोविन्द दिये मिलाय !
एक बार बारिश के मौसम में कुछ साधू-महात्मा अचानक कबीर जी के घर आ गये !बारिश के कारण कबीर साहब जी बाज़ार में कपडा बेचने नही जा सके और घर पर खाना भी काफी नही था !उन्होंने अपनी पत्नी लोई से पूछा -क्या कोई दुकानदार कुछ आटा -दाल हमें उधार दे देगा जिसे हम बाद में कपडा बेचकर चुका देगे !पर एक गरीब जुलाहे को भला कौन उधार देता जिसकी कोई अपनी निश्चित आय भी नही थी !
लोई कुछ दुकानो पर सामान लेने गई पर सभी ने नकद पैसे मांगे आखिर एक दुकानदार ने उधार देने के लिये उनके सामने एक शर्त रखी कि अगर वह एक रात उसके साथ बितायेगी तो वह उधार दे सकता है !इस शर्त पर लोई को बहुत बुरा तो लगा लेकिन वह खामोश रही जितना आटा-दाल उन्हें चाहिये था दुकानदार ने दे दिया !जल्दी से घर आकर लोई ने खाना बनाया और जो दुकानदार से बात हुई थी कबीर साहब को बता दी !
रात होने पर कबीर साहब ने लोई से कहा कि दुकानदार का क़र्ज़ चुकाने का समय आ गया है ; चिंता मत करना सब ठीक हो जायेगा !जब वह तैयार हो कर जाने लगी कबीर जी बोले क़ि बारिश हो रही है और गली कीचड़ से भरी है तुम कम्बल ओढ़ लो मै तुमे कंधे पर उठाकर ले चलता हूँ !
जब दोनों दुकानदार के घर पर पहुचे लोई अन्दर चली और कबीर जी दरवाजे के बाहर उनका इंतज़ार करने लगे !लोई को देखकर दुकानदार बहुत खुश हुआ पर जब उसने देखा कि बारिश के बावजूद न तो लोई के कपडे भीगे है ओर ना ही पाँव तो उसे बहुत हैरानी हुई !उसने पूछा -यह क्या बात है क़ि कीचड़ से भरी गली में से तुम आई हो फिर भी तुमारे पावो पर कीचड़ का एक दाग भी नही !
तब लोई ने जवाब दिया -इसमें हैरानी की कोई बात नही मेरे पति मुझे कम्बल ओढा कर अपने कंधे पर बिठाकर यहाँ पर लाये है !यह सुनकर दूकानदार बहुत चकित रह गया ;लोई का निर्मल और निष्पाप चेहरा देखकर वह बहुत प्रभावित हुआ और आश्चर्य से उसे देखता रहा !जब लोई ने कहा कि उसके पति कबीर साहब जी उसे वापस ले जाने के लिये बाहर इंतज़ार कर रहे है तो दुकानदार अपनी नीचता और कबीर साहब जी की महानता को देख-देख कर शर्म से पानी-पानी हो गया !
उसने लोई और कबीर साहब जी दोनों से घुटने टेक कर क्षमा मांगी !कबीर साहब जी ने उसको क्षमा कर दिया !दुकानदार कबीर जी के दिखाये हुए मार्ग पर चल पड़ा जो कि था परमार्थ का मार्ग और समय के साथ उनके प्रेमी भक्तो में गिना जाना लगा ;भटके हुए जीवो को सही रास्ते पर लाने के लिए संतो के अपने ही तरीके होते है !
संत ने छोड़े संतई चाहे कोटिक मिले असंत ;
चन्दन विष व्यामत नही लिपटे रहत भुजंग !
पूर्ण संत हर काल में हर किसी की मन की मैल और विकारो को मिटाकर एवं प्रभु का ज्ञान करवाकर प्रभु की कृपादर्ष्टि का पात्र बनाता है !

Tuesday, 2 April 2013

03.04.13


रेगिस्तान में एक आदमी के पास यमदूत आया लेकिन आदमी उसे पहचान नहीं सका और उसने उसे पानी पिलाया.

“मैं मृत्युलोक से तुम्हारे प्राण लेने आया हूँ” – यमदूत ने कहा – “लेकिन तुम अच्छे आदमी लगते हो इसलिए मैं तुम्हें पांच मिनट के लिए नियति की पुस्तक दे सकता हूँ. इतने समय में तुम जो कुछ बदलना चाहो, बदल सकते हो”.

यमदूत ने उसे नियति की पुस्तक दे दी. पुस्तक के पन्ने पलटते हुए आदमी को उसमें अपने पड़ोसियों के जीवन की झलकियाँ दिखीं. उनका खुशहाल जीवन देखकर वह ईर्ष्या और क्रोध से भर गया.

“ये लोग इतने अच्छे जीवन के हक़दार नहीं हैं” – उसने कहा, और कलम लेकर उनके भावी जीवन में भरपूर बिगाड़ कर दिया.

अंत में वह अपने जीवन के पन्नों तक भी पहुंचा. उसे अपनी मौत अगले ही पल आती दिखी. इससे पहले कि वह अपने जीवन में कोई फेरबदल कर पाता, मौत ने उसे अपने आगोश में ले लिया.

अपने जीवन के पन्नों तक पहुँचते-पहुँचते उसे मिले पांच मिनट पूरे हो चुके थे.

Monday, 1 April 2013

02.04.13


हे दुःख भन्जन, मारुती नंदन, सुन
लो मेरी पुकार |
पवनसुत विनती बारम्बार ||
अष्ट सिद्धि नव निद्दी के दाता, दुखिओं के
तुम भाग्यविदाता |
सियाराम के काज सवारे, मेरा करो उधार
||
अपरम्पार है शक्ति तुम्हारी, तुम पर रीझे
अवधबिहारी |
भक्ति भाव से ध्याऊं तुम्हे, कर दुखों से पार
||
जपूं निरंतर नाम तिहरा, अब नहीं छोडूं
तेरा द्वारा |
राम भक्त मोहे शरण मे लीजे भाव सागर से
तार |

02.04.13


  हनुमानजी का अद्भुत पराक्रम
___________________________

जब रावण ने देखा कि हमारी पराजय निश्चित है तो उसने १००० अमर राक्षसों को बुलाकर रणभूमि में भेजने का आदेश दिया ! ये ऐसे थे जिनको काल भी नहीं खा सका था! विभीषण के गुप्तचरों से समाचार मिलने पर श्रीराम को चिंता हुई कि हम लोग इनसे कब तक लड़ेंगे ? सीता का उद्धार और विभीषण का राज तिलक कैसे होगा? क्योंकि युद्ध कि समाप्ति असंभव है ! श्रीराम कि इस स्थितिसे वानरवाहिनी के साथ कपिराज सुग्रीव भी विचलित हो गए कि अब क्या होगा ? हम अनंत कल तक युद्ध तो कर सकते हैं पर विजयश्री का वरण नहीं !पूर्वोक्त दोनों कार्य असंभव हैं !अंजनानंदन हनुमान जी आकर वानर वाहिनी के साथ श्रीराम को चिंतित देखकर बोले –प्रभो ! क्या बात है ? श्रीराम के संकेत से विभीषण जी ने सारी बात बतलाई !अब विजय असंभव है ! पवन पुत्र ने कहा –असम्भव को संभव और संभव को असम्भव कर देने का नाम ही तो हनुमान है !प्रभो! आप केवल मुझे आज्ञा दीजिए मैं अकेले ही जाकर रावण की अमर सेना को नष्ट कर दूँगा !कैसे हनुमान ? वे तो अमर हैं ! प्रभो ! इसकी चिंता आप न करें सेवक पर विश्वास करें !उधर रावण ने चलते समय राक्षसों से कहा था कि वहां हनुमान नाम का एक वानर है उससे जरा सावधान रहना ! एकाकी हनुमानजी को रणभूमि में देखकर राक्षसों ने पूछा तुम कौन हो क्या हम लोगों को देखकर भय नहीं लगता जो अकेले रणभूमि में चले आये ! मारुति –क्यों आते समय राक्षस राज रावण ने तुम लोगों को कुछ संकेत नहीं किया था जो मेरे समक्ष निर्भय खड़े हो !निशाचरों को समझते देर न लगी कि ये महाबली हनुमान हैं ! तो भी क्या ? हम अमर हैं हमारा ये क्या बिगाड़ लेंगे !भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ पवनपुत्र कि मार से राक्षस रणभूमि में ढेर होने लगे चौथाई सेना बची थी कि पीछे से आवाज आई हनुमान हम लोग अमर हैं हमें जीतना असंभव है ! अतः अपने स्वामी के साथ लंका से लौट जावो इसी में तुम सबका कल्याण है ! आंजनेय ने कहा लौटूंगा अवश्य पर तुम्हारे कहने से नहीं !अपितु अपनी इच्छा से !हाँ तुम सब मिलकर आक्रमण करो फिर मेरा बल देखो और रावण को जाकर बताना !राक्षसों ने जैसे ही एक साथ मिलकर हनुमानजी पर आक्रमण करना चाहां वैसे ही पवनपुत्र ने उन सबको अपनी पूंछ में लपेटकर ऊपर आकाश में फेंक दिया ! वे सब पृथ्वी कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति जहाँ तक है वहां से भी ऊपर चले गए ! चले ही जा रहे हैं ---चले मग जात सूखि गए गात— गोस्वामी तुलसीदास !उनका शरीर सूख गया अमर होने के कारण मर सकते नहीं ! अतः रावण को गाली देते हुए और कष्ट के कारण अपनी अमरता को कोसते हुए अभी भी जा रहे हैं ! इधर हनुमान जी ने आकर प्रभु के चरणों में शीश झुकाया ! श्रीराम बोले –क्या हुआ हनुमान! प्रभो ! उन्हें ऊपर भेजकर आ रहा हूँ !राघव –पर वे अमर थे हनुमान!हाँ स्वामी इसलिए उन्हें जीवित ही ऊपर भेज आया हूँ अब वे कभी भी नीचे नहीं आ सकते ? रावण को अब आप शीघ्रातिशीघ्र ऊपर भेजने की कृपा करें जिससे माता जानकी का आपसे मिलन और महाराज विभीषण का राजसिंहासन हो सके ! पवनपुत्र को प्रभु ने उठाकर गले लगा लिया ! वे धन्य हो गए अविरल भक्ति का वर पाकर ! श्रीराम उनके ऋणी बन गए !और बोले –हनुमानजी—आपने जो उपकार किया है वह मेरे अंग अंग में ही जीर्ण शीर्ण हो जाय मैं उसका बदला न चुका सकूँ ,क्योकि उपकार का बदला विपत्तिकाल में ही चुकाया जाता है ! पुत्र ! तुम पर कभी कोई विपत्ति न आये !निहाल हो गए आंजनेय ! हनुमानजी की वीरता के सामान साक्षात काल देवराज इन्द्र महाराज कुबेर तथा भगवान विष्णु की भी वीरता नहीं सुनी गयी –ऐसा कथन श्रीराम का है – न कालस्य न शक्रस्य न विष्णो र्वित्तपस्य च ! कर्माणि तानि श्रूयन्ते यानि युद्धे हनूमतः !!-
>>>>>>>वाल्मीकिरामायण उत्तर कांड १५/८.
>>>>>>जय जय जय जय जय श्रीराम !
>>>>>>अंजनि पुत्र