Saturday 31 August 2013

01-09-13


एक बार एक छोटी चिड़िया सर्दी में
खाने की तलाश में उड़ कर जा रही थी ,
ठंड इतनी ज्यादा थी की उससे सहन
नही हुई और खून जम जाने से वो वहीँ एक
मैदान में गिर गयी....वहां पर एक गाय
नेआकर उसके ऊपर गोबर कर दिया , गोबर के नीचे दबने के बाद उस
चिड़िया को एहसास हुआ की उसे
दरअसल उस गोबर के ढेर में गर्मी मिल
रही थी , लगातार गर्माहट के एहसास ने
उस छोटी चिड़िया को सुकून से भर
दिया और उसने गाना गाना शुरू कर दिया.... वहां से निकल रही एक बिल्ली ने उस गाने
की आवाज़ सुनी और देखने लगी की ये
आवाज़ कहाँ से आ रही है ,थोड़ी देर बाद
उसे एहसास हुआ की ये आवाज़ गोबर के ढेर
के अंदर से आ रही है , उसने गोबर का ढेर
खोदा और उस चिड़िया को बाहर निकाला और उसे खा गयी..... # आपके ऊपर गंदगी फेंकने वाला हर इंसान
आपका दुश्मन नही होता , और
आपको उस गंदगी में से बाहर निकलने
वाला हर इंसान आपका दोस्त
नही होता ..

Friday 30 August 2013

31.08.13


छोटी कहानी पर संदेश बड़ा...

एक लड़का और एक लड़की साथ साथ खेल रहे थे. लड़के के पास संगमरमर के दुकड़े थे और लड़की के पास मिठाई.

लड़के ने लड़की से कहा कि वह् उसे समस्त मिठाई दे दे और बदले में लड़का उसे समस्त संगमरमर के टुकड़े दे देगा.

लड़की तैयार हो गई.

लड़के ने सबसे बड़े और खूबसूरत संगमरमर के टुकड़े अपने पास रख लिए और बाकी टुकड़े उस लड़की को दे दिये. बदले में लड़की ने लड़के को पूरी मिठाई दे दी जैसा कि निश्चित हुआ था.

रात्रि को लड़की तो शांति से सोयी किन्तु लड़के को नींद नहीं आई क्योंकि वह् सोचता रहा कि जैसे उसने कुछ टुकड़े छिपा लिए थे वैसे ही लड़की ने भी कुछ मिठाई छुपा ली होगी.

शिक्षा :

अगर आप किसी सम्बन्ध में अपना 100 प्रतिशत नहीं देते हैं तो आप हमेशा संदेह में रहेंगे कि अन्य व्यक्ति ने उसका 100 प्रतिशत दिया कि नही

Thursday 29 August 2013

30.08.13


एक भक्त था वह बिहारी जी को बहुत मानता था,बड़े प्रेम और भाव से उनकी सेवा किया करता था.
एक दिन भगवान से कहने लगा –
में आपकी इतनी भक्ति करता हूँ पर आज तक मुझे आपकी अनुभूति नहीं हुई.
मैं चाहता हूँ कि आप भले ही मुझे दर्शन ना दे पर ऐसा कुछ कीजिये की मुझे ये अनुभव हो की आप हो.
भगवान ने कहा ठीक है.
तुम रोज सुबह समुद्र के किनारे सैर पर जाते हो,जब तुम रेत पर चलोगे तो तुम्हे दो पैरो की जगह चार पैर दिखाई देगे, दो तुम्हारे पैर होगे और दो पैरो के निशान मेरे होगे.इस तरह तुम्हे मेरी अनुभूति होगी.
अगले दिन वह सैर पर गया,जब वह रे़त पर चलने लगा तो उसे अपने पैरों के साथ-साथ दो पैर और भी दिखाई दिये वह बड़ा खुश हुआ,अब रोज ऐसा होने लगा.
एक बार उसे व्यापार में घाटा हुआ सब कुछ चला गया, वह सड़क पर आ गया उसके अपनो ने उसका साथ छोड दिया.
देखो यही इस दुनिया की प्रॉब्लम है, मुसीबत मे सब साथ छोड देते है.
अब वह सैर पर गया तो उसे चार पैरों की जगह दो पैर दिखाई दिये.उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बुरे वक्त मे भगवन ने साथ छोड दिया.धीरे-धीरे सब कुछ ठीक होने लगा फिर सब लोग उसके पास वापस आने लगे.
एक दिन जब वह सैर पर गया तो उसने देखा कि चार पैर वापस दिखाई देने लगे.उससे अब रहा नही गया,
वह बोला-
भगवान जब मेरा बुरा वक्त था तो सब ने मेरा साथ छोड़ दिया था पर मुझे इस बात का गम नहीं था क्योकि इस दुनिया में ऐसा ही होता है, पर आप ने भी उस समय मेरा साथ छोड़ दिया था,
ऐसा क्यों किया?
भगवान ने कहा –
तुमने ये कैसे सोच लिया की में तुम्हारा साथ छोड़ दूँगा,
तुम्हारे बुरे वक्त में जो रेत पर तुमने दो पैर के निशान देखे वे तुम्हारे पैरों के नहीं मेरे पैरों के थे,
उस समय में तुम्हे अपनी गोद में उठाकर चलता था और आज जब तुम्हारा बुरा वक्त खत्म हो गया तो मैंने तुम्हे नीचे उतार दिया है. इसलिए तुम्हे फिर से चार पैर दिखाई दे रहे है.

Wednesday 28 August 2013

29.08.13


एक बार एक शिक्षक संपन्न परिवार से
सम्बन्ध रखने वाले एक युवा शिष्य के साथ
कहीं टहलने निकले . उन्होंने देखा की रास्ते
में पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं ,
जो संभवतः पास के खेत में काम कर रहे
गरीब मजदूर के थे जो अब अपना काम ख़त्म
कर घर वापस जाने की तयारी कर
रहा था .
शिष्य को मजाक सूझा उसने शिक्षक से
कहा , “ गुरु जी क्यों न हम ये जूते
कहीं छिपा कर झाड़ियों के पीछे छिप
जाएं ; जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर
घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा !!”
शिक्षक गंभीरता से बोले , “ किसी गरीब के
साथ इस तरह का भद्दा मजाक करना ठीक
नहीं है . क्यों ना हम इन जूतों में कुछ सिक्के
डाल दें और छिप कर देखें की इसका मजदूर
पर क्या प्रभाव पड़ता है !!”
शिष्य ने ऐसा ही किया और दोनों पास
की झाड़ियों में छुप गए .
मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर
जूतों की जगह पर आ गया . उसने जैसे ही एक
पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज
का आभास हुआ , उसने जल्दी से जूते हाथ में
लिए और देखा की अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे ,
उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में
लेकर बड़े गौर से उन्हें पलट -पलट कर देखने
लगा . फिर उसने इधर -उधर देखने लगा , दूर
-दूर तक कोई नज़र नहीं आया तो उसने
सिक्के अपनी जेब में डाल लिए . अब उसने
दूसरा जूता उठाया , उसमे भी सिक्के पड़े थे
…मजदूर भावविभोर हो गया ,
उसकी आँखों में आंसू आ गए , उसने हाथ जोड़
ऊपर देखते हुए कहा – “हे भगवान् , समय पर
प्राप्त इस सहायता के लिए उस अनजान
सहायक का लाख -लाख धन्यवाद ,
उसकी सहायता और दयालुता के कारण आज
मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखें
बच्चों को रोटी मिल सकेगी .

Tuesday 27 August 2013

28.08.13


नाम लेत भवसिन्धु सुखाहिं
करहु बिचार सुजन मन माहिं

कलियुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा॥


भायँ कुभायँ अनख आलसहू।
नाम जपत मँगल दिसि दसहू॥

हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे रामा हरे राम
राम राम हरे हरे॥

हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे रामा हरे राम
राम राम हरे हरे॥

हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे रामा हरे राम
राम राम हरे हरे॥

हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे रामा हरे राम
राम राम हरे हरे॥

हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे रामा हरे राम
राम राम हरे हरे॥

(¯`'•.¸(¯`•*_/\_*•¯)¸.•'´¯)
नारायण नारायण नारायण
नारायण नारायण
(_¸.•'´`(_•*_/\_*•_)`'•.¸_)
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन पर्व पर आप सभी को शुभकामनायें.

Monday 26 August 2013

27.08.13


एक राजा की चार रानियां थीं। एक दिन प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें वरदान मांगने
को कहा। रानियों ने कहा कि समय आने पर वे
मांग लेंगी। कुछ समय बाद राजा ने एक
अपराधी को मृत्युदंड दिया। बड़ी रानी ने
सोचा कि इस मरणासन्न व्यक्ति को एक
दिन का जीवनदान देकर उसे उत्तम पकवान खिलाकर खुश करना चाहिए। उन्होंने राजा से
प्रार्थना की- मेरे वरदान के रूप में आप इस
अपराधी को एक दिन का जीवनदान दें और
उसका आतिथ्य मुझे करने दें।
रानी की प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। रानी ने
अपराधी को स्वादिष्ट भोजन कराया। किंतु अपराधी ने उस राजसी खाने में कोई खास
रुचि नहीं ली। दूसरी रानी ने भी वही वरदान
मांगा और अपराधी को एक दिन का जीवनदान
और मिल गया। दूसरी रानी ने खाना खिलाने के
साथ उसे सुंदर वस्त्र भी दिए। पर
अपराधी असंतुष्ट रहा। तीसरे दिन तीसरी रानी ने फिर वही वरदान
मांगकर उसके नृत्य-संगीत
की व्यवस्था भी की। किंतु अपराधी का मन
तनिक भी नहीं लगा। चौथे दिन सबसे
छोटी रानी ने राजा से प्रार्थना की कि मैं
वरदान में चाहती हूं कि इस अपराधी को क्षमादान दिया जाए।
रानी की प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। उस
रानी ने अपराधी को सूखी रोटियां व दाल
खिलाई, जिन्हें उसने बड़े आनंद से खाया।
राजा ने अपराधी से इस बारे में पूछा तो वह
बोला- राजन, मुझे तो छोटी रानी की रूखी- सूखी रोटियां सबसे स्वादिष्ट लगीं,
क्योंकि तब मुझे मृत्यु का भय नहीं था। उससे
पहले मौत के भय के कारण मुझे कुछ
भी अच्छा नहीं लग रहा था।

Sunday 25 August 2013

26.08.13


ओ शंकर मेरे कब होंगे दर्शन तेरे
जीवन पथ पर, शाम सवेरे छाए है घनघोर अंधेरे
ओ शंकर मेरे कब होंगे दर्शन तेरे
जय भोले जय भंडारी, तेरी है महिमा नयारी,
तेरी मोहिनी मूरत लगेहै प्यारी।

कण कण में है तेरा वासप्रभु, है तीनो लोक में तू ही तू।
जल में है, थल में है, नभ में है, पवन में है, तेरी छवि समाई,
डमरू की धुन में है, झूमे है श्रृष्टि, महिमा यह कैसी रचाई।
ओ शंकर मेरे कब होंगे दर्शन तेरे
जीवन पथ पर, शाम सवेरे छाए है घनघोर अंधेरे
ओ शंकर मेरे कब होंगे दर्शन तेरे
जय भोले जय भंडारी, तेरी है महिमा नयारी,
तेरी मोहिनी मूरत लगेहै प्यारी।

कण कण में है तेरा वासप्रभु, है तीनो लोक में तू ही तू।
जल में है, थल में है, नभ में है, पवन में है, तेरी छवि समाई,
डमरू की धुन में है, झूमे है श्रृष्टि, महिमा यह कैसी रचाई।
ओ शंकर मेरे कब होंगे दर्शन तेरे
जीवन पथ पर, शाम सवेरे छाए है घनघोर अंधेरे
ओ शंकर मेरे कब होंगे दर्शन तेरे
जय भोले जय भंडारी, तेरी है महिमा नयारी,
तेरी मोहिनी मूरत लगेहै प्यारी।

कण कण में है तेरा वासप्रभु, है तीनो लोक में तू ही तू।
जल में है, थल में है, नभ में है, पवन में है, तेरी छवि समाई,
डमरू की धुन में है, झूमे है श्रृष्टि, महिमा यह कैसी रचाई।

Saturday 24 August 2013

25.08.13


दान की महिमा

हम आपको राजा बलि के पूर्व जन्म के बारे में बताते हैं. राजा बलि जिनके लिये प्रभु ने वामन अवतार लिया था. कहा जाता है कि ये पूर्व जन्म में जुआरी थे. एक बार इस जुआरी को जुए में कुछ धन मिला. उस धन से इसने वैश्या के लिये एक हार लिया. बहुत खुशी-खुशी ये हार लेकर वैश्या के घर जाने लगा. पर रास्ते में ही इसकी मृत्यु आ गयी. ये मरने ही वाला था कि इसने सोचा कि अब ये हार वैश्या तक तो पहुँचा नहीं पाऊंगा, चलो इसे शिव को अर्पण कर दूँ. ऐसा सोच कर उसने हार शिव को अर्पण कर दिया और मृत्यु को प्राप्त हुआ.

मर कर वो यमराज के सामने पहुँचा . चित्रगुप्त ने उसके कर्मों का लेखा-जोखा देखा. उसके जीवन में पाप ही पाप थे. पर चित्रगुप्त ने कहा कि मरते समय इसने जुए के पैसे से, वैश्या के लिये ख़रीदा हार ‘शिवार्पण’ किया था. येही मात्र इसका पुण्य है. यमराज ने उससे पूछा कि पहले पाप का फल भोगोगे कि पुण्य का. जुआरी ने कहा कि पाप तो बहुत हैं पहले पुण्य का फल देदो. उस पुण्य के बदले उसे दो घड़ी के लिये इंद्र बनाया गया. इंद्र बनने पर वो अप्सराओं के नृत्य और सुरापान का आनंद लेने लगा. तभी नारदजी आते हैं, उसे देख कर हँसते हैं और एक बात बोलते हैं, कि अगर इस बात में संदेह हो कि स्वर्ग-नर्क हैं तब भी सत्कर्म तो कर ही लेना चाहिए वर्ना अगर ये नहीं हुए तो आस्तिक का कुछ नहीं बिगड़ेगा पर हुए तो नास्तिक जरूर मारा जायेगा. ये सुनते ही उसे होश आ गया. उसने दो घड़ी में ऐरावत, नन्दन वन समेत पूरा इन्द्रलोक दान कर दिया. इसके प्रताप से वो पापों से मुक्त हो इंद्र बना और बाद में राजा बलि हुआ.

अब कुछ बातों पर विचार करें-

१. अभी हमारे पास अच्छा समय है. कोई रोग नहीं है, कोई खास परेशानी नहीं है. अगले पल क्या होगा इसका पता नहीं है. इस समय का सदुपयोग कर लो.
२. सदुपयोग करो. कुछ दान कर लो. देखो, जुआरी ने जो दान किया वो दूसरे का था. शायद इस बात से उसे कुछ बल जरूर मिला होगा. अब जो हमारे पास है, वो भी हमारा नहीं है. सुना होगा ‘मैं नहीं मेरा नहीं ये तन किसी का है दिया, जो भी अपने पास है वो धन किसी का है दिया’... और ‘देने वाले ने दिया वो भी दिया किस शान से’.. कि ‘लेने वाला कह उठा ये मेरा है अभिमान से’.. इस बात पर विचार करो, आपको भी बल मिलेगा.
३. आप धन का दान करो, वस्तु का दान करो, सामर्थ्य के अनुसार , बहुत अच्छी बात. पर सबसे बड़े दानी कौन हैं ? तो गोपियाँ ‘गोपी गीत’ में कहती हैं कि जो भगवान की कथा का दान करें वे संसार में सबसे बड़े दानी हैं.
४. राम कथा, भागवत कथा सुनाओ बड़ी अच्छी बात... पर जानते हो शुद्ध राम कथा क्या है ? चलो इस पर भी एक कहानी सुनते हैं. एक बार समर्थ बाबा रामदास हनुमान जी से बोले कि आप लोगों को दर्शन देकर उनके कष्ट हर लो. हनुमान जी ने कहा बाबा आप शुद्ध राम कथा करना और मैं आकर दर्शन दूँगा. बाबा शिवाजी के गुरु थे, एक गांव में गए. राजगुरु का बहुत आदर हुआ. उन्होंने कहा कि आज शाम कथा होगी. पंडाल सज गया, लोग आ गए... बाबा ने राम नाम संकीर्तन शुरू किया, करते रहे, नाचने लगे.. लोग कुछ देर बाद लोग उठ-उठ जाने लगे.. बाबा तो नाम में मस्त थे.. धीमे धीमे पंडाल भी हटा दिया गया.. बाबा तो नाम लेलेकर नाच रहे थे.. डरी भी हटा दी गयी.. सब चले गए.. हनुमान जी प्रगट हुए, बोले बाबा मैं आ गया. बाबा ने कहा प्रभु सबको दर्शन दीजिए.. पर वहाँ कोई था ही नहीं.. शुद्ध ‘राम-कथा’ तो ‘राम-नाम’ ही है, जिसका मोल हम नहीं जानते..
५. तो आप राम नाम सुनाओ.. पूरी प्रकृति को- पेड़, पौधे, पशु पक्षी सबको.. ये नाम जप की एक विधि है जहाँ अपने लिये नहीं , दूसरों के कल्याण को जपो.. बहुत आनंद की रचना होगी..

अब बताओ ये कोई बहुत कठिन बात है ? नारायण ! नारायण ! नारायण ! 

Friday 23 August 2013

24.08.13


अढाई अक्षर प्रेम के लिए हर कोई यह अभिलाषा करता है कि हर जन मुझे से प्रेम करे हर कोई प्रेम तो चाहता है परन्तु कितने हैं जो दूसरों को प्रेम देते हैं... क्या भजन गाने से, हाथ मिलाने से प्रेम हो जाता है....
प्रेम तब होता है जब हम अंदर से सरल हो जाते हैं.... किसी भी वस्तु को तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक हम पूर्ण रूप से उसका मूल्य नहीं दे देते.... उसी प्रकार हम पूर्ण समर्पित हुए बिना न तो किसी से प्रेम पा सकते हैं और न हीं किसी को प्रेम दे सकते हैं......
भगवान को पाने के लिए भी हमें द्रौपदी की तरह पूर्ण समपर्ण करना होगा.... द्रौपदी को भी भगवान ने चीर तभी प्रदान किया जब उसने दोनों हाथ उठाकर स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया....
हम जब तक अपने मन में अनुराग नहीं जगाते और जब तक क्रोध, काम, मोह, माया का त्याग नहीं करते तब तक परमात्मा का प्रेम नहीं मिलता.... फिर तो हम सब से प्रेम करते है तो सबका भला चाहते है तो एक अच्छाई की ताकत खुद आपको मिल जाती है जिससे आपमें शक्ति आ जाती है ..और अगर कोई आपको दिल से प्रेम करता है तो हर वक्त वो आपका भला चाहता है ..फिर वह आपको हमेशा प्रोत्साहित करते रहेगा..... कोशिश करेगा कि वो आपकी ताकत बने जिससे आपका साहस बढेगा आप निडर हो सकोगे....प्रेम का सही मतलब समझो तो बहुत गहराई है इसमें ..जिस प्रेम से इंसान कमजोर हो रहा हो वो प्रेम नहीं स्वार्थ है ..प्रेम तो इंसान को सिर्फ प्रगति के पथ पर ले जाता है सिर्फ आगे बढाता है ...जय श्री कृष्ण

Thursday 22 August 2013

23.08.13



एक घर के मुखिया को यह अभिमान हो गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता। उसकी छोटी सी दुकान थी। उससे जो आय होती थी, उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था। चूंकि कमाने वाला वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। वह लोगों के सामने डींग हांका करता था।

एक दिन वह एक संत के सत्संग में पहुंचा। संत कह रहे थे, 'दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता। यह अभिमान व्यर ्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा। सभी को अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है।' सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से कहा, 'मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का खर्च चलता है। मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे।'

संत बोले, 'यह तुम्हारा भ्रम है। हर कोई अपने भाग्य का खाता है।' इस पर मुखिया ने कहा, 'आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए।' संत ने कहा, 'ठीक है। तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ।' उसने ऐसा ही किया। संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने खा लिया है। मुखिया के परिवार वालों ने कई दिनों तक शोक मनाया। गांव वाले आखिरकार उनकी मदद के लिए सामने आए। एक सेठ ने उसके बड़े लड़के को अपने यहां नौकरी दे दी। गांव वालों ने मिलकर लड़की की शादी कर दी। एक व्यक्ति छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हो गया। एक महीने बाद मुखिया छिपता-छिपाता रात के वक्त अपने घर आया। घर वालों ने भूत समझकर दरवाजा नहीं खोला। जब वह बहुत गिड़गिड़ाया और उसने सारी बातें बताईं तो उसकी पत्नी ने दरवाजे के भीतर से ही उत्तर दिया, 'हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब हम पहले से ज्यादा सुखी हैं।' उस व्यक्ति का सारा अभिमान उतर गया,.......भावार्थ ..... सं सा र ..... किसी के लिए भी नही रुकता ... यहाँ सभी के बिना काम चल सकता है इस संसार को चलाने वाला परमात्मा है ..

Wednesday 21 August 2013

22.08.13


कुंतालपुर का राजा बड़ा ही न्याय प्रिय था| वह अपनी प्रजा के दुख-दर्द में बराबर काम आता था| प्रजा भी उसका बहुत आदर करती थी| एक दिन राजा गुप्त वेष में अपने राज्य में घूमने निकला तब रास्ते में देखता है कि एक वृद्ध एक छोटा सा पौधा रोप रहा है|

राजा कौतूहलवश उसके पास गया और बोला, ‘‘यह आप किस चीज का पौधा लगा रहे हैं ?’’ वृद्ध ने धीमें स्वर में कहा, ‘‘आम का|’’

राजा ने हिसाब लगाया कि उसके बड़े होने और उस पर फल आने में कितना समय लगेगा| हिसाब लगाकर उसने अचरज से वृद्ध की ओर देखा और कहा, ‘‘सुनो दादा इस पौधै के बड़े होने और उस पर फल आने मे कई साल लग जाएंगे, तब तक तुम क्या जीवित रहोगे?’’ वृद्ध ने राजा की ओर देखा| राजा की आँखों में मायूसी
थी| उसे लग रहा था कि वह वृद्ध ऐसा काम कर रहा है, जिसका फल उसे नहीं मिलेगा|

यह देखकर वृद्ध ने कहा, ‘‘आप सोच रहें होंगे कि मैं पागलपन का काम कर रहा हूँ| जिस चीज से आदमी को फायदा नहीं पहुँचता, उस पर मेहनत करना बेकार है, लेकिन यह भी तो सोचिए कि इस बूढ़े ने दूसरों की मेहनत का कितना फायदा उठाया है ? दूसरों के लगाए पेड़ों के कितने फल अपनी जिंदगी में खाए हैं ? क्या
उस कर्ज को उतारने के लिए मुझे कुछ नहीं करना चाहिए? क्या मुझे इस भावना से पेड़ नहीं लगाने चाहिए कि उनके फल दूसरे लोग खा सकें? जो केवल अपने लाभ के लिए ही काम करता है, वह तो स्वार्थी वृत्ति का मनुष्य होता है|’’

Tuesday 20 August 2013

21.08.13


जय श्री कृष्‍ण राधे राधे।।

गुरु ज्ञानानंद के गुरुकुल में कई शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। एक दिन ज्ञानानंद के एक प्रिय शिष्य विक्रांत ने उनसे कहा, 'गुरुजी, मैंने इस गुरुकुल में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया है। लेकिन मुझे पेड़ पर चढ़ना नहीं आता। मेरा पेड़ पर चढ़ने का बहुत मन करता है लेकिन मुझे लगता है कि यदि मैं पेड़ पर चढ़ने का प्रयास करूंगा तो गिर जाऊंगा।' गुरु बोले, 'यदि तुम पेड़ पर चढ़ने का प्रयास करोगे तो मेरा विश्वास है कि तुम नहीं गिरोगे।' इसके बाद उन्होंने विक्रांत को एक बड़े पेड़ के आखिरी सिरे तक चढ़ने के लिए कहा। विक्रांत संभल-संभल कर पेड़ पर चढ़ने लगा। गुरु ने उसे कुछ भी नहीं कहा। आखिर वह संभल-संभल कर चढ़ गया। जैसे ही वह पेड़ से उतरने लगा तो गुरु बार-बार जोर-जोर से कहने लगे, 'बेटा, संभल कर उतरो।' विक्रांत उतरते समय गुरु के निर्देशों को सुनकर हैरान रह गया। उतरकर उसने पूछा, 'गुरुजी, जब मैं पेड़ पर चढ़ रहा था तो उस समय मुझे आपके निर्देशों की आवश्यकता थी लेकिन तब आप कुछ नहीं बोले जबकि उतरते समय मार्गदर्शन करने लगे जिसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी।' इस पर गुरु मुस्कराते हुए बोले, 'पेड़ पर चढ़ते समय तुम स्वयं सावधान थे इसलिए मुझे कुछ कहने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। लेकिन चढ़ जाने के बाद तुम अति आत्मविश्वास से भर गए इसलिए मैंने तुम्हें सावधान किया। जीवन में भी ऐसा ही होता है। शिखर पर पहुंचकर लोग अति आत्मविश्वास का शिकार हो जाते हैं इसलिए उनके शिखर से गिरने की आशंका अधिक होती हैं। जबकि शिखर पर भी विनम्र रहने वाले कभी नहीं गिरते।

Monday 19 August 2013

20.08.13


जय हो जय तो तुम्हारी जी बजरंगबली,
ले के शिव रूप आना गज़ब हो गया ।
त्रेता युग में थे तुम आये, द्वार में भी,
तेरा कलयुग में आना गज़ब हो गया ॥

बचपन की कहानी निराली बड़ी,
जब लगी भूख बजरंग मचलने लगे ।
फल समझ कर उड़े आप आकाश में,
तेरा सूरज को खाना गज़ब हो गया ॥

कूदे लंका में जब मच गयी खलबली,
मारे चुन चुन के असुरों को बजरंगबली ।
मार डाले अक्षे को पटक के वोही,
तेरा लंका जलाना गज़ब हो गया ॥

आके शक्ति लगी जो लखन लाल को,
राम जी देख रोये लखन लाल को ।
लेके संजीवन बूटी पवन वेग से,
पूरा पर्वत उठाना गज़ब हो गया ॥

जब विभिक्षण संग बैठे थे श्री राम जी,
और चरणों में हाजिर थे हनुमान जी ।
सुन के ताना विभिक्षण का अनजानी के लाल,
फाड़ सीना दिखाना गज़ब हो गया !!

श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम

Sunday 18 August 2013

19.08..13


बहुत समय पहले की बात है !! एक सरोवर में बहुत
सारे मेंढक रहते थे !! सरोवर के बीचों -बीच एक
बहुत पुराना धातु का खम्भा भी लगा हुआ था जिसे
उस सरोवर को बनवाने वाले राजा ने
लगवाया था !! खम्भा काफी ऊँचा था और
उसकी सतह भी बिलकुल चिकनी थी !!
एक दिन मेंढकों के दिमाग में आया कि क्यों ना एक
रेस करवाई जाए !! रेस में भाग लेने
वाली प्रतियोगीयों को खम्भे पर
चढ़ना होगा और जो सबसे पहले एक ऊपर पहुच
जाएगा वही विजेता माना जाएगा !!
रेस का दिन आ पंहुचा !! चारो तरफ बहुत भीड़
थी !! आस -पास के इलाकों से भी कई मेंढक इस रेस में
हिस्सा लेने पहुचे !! माहौल में सरगर्मी थी !! हर
तरफ शोर ही शोर था !!
रेस शुरू हुई, लेकिन खम्भे को देखकर भीड़ में एकत्र
हुए किसी भी मेंढक को ये यकीन नहीं हुआ कि कोई
भी मेंढक ऊपर तक पहुंच पायेगा !! हर तरफ
यही सुनाई देता - "अरे ये बहुत कठिन है !!
वो कभी भी ये रेस पूरी नहीं कर पायंगे !!
सफलता का तो कोई सवाल ही नहीं !! इतने चिकने
खम्भे पर चढ़ा ही नहीं जा सकता !!"
और यही हो भी रहा था, जो भी मेंढक कोशिश
करता, वो थोड़ा ऊपर जाकर नीचे गिर जाता !!
कई मेंढक दो -तीन बार गिरने के बावजूद अपने
प्रयास में लगे हुए थे !!
पर भीड़ तो अभी भी चिल्लाये जा रही थी - "ये
नहीं हो सकता , असंभव !!" और वो उत्साहित मेंढक
भी ये सुन-सुनकर हताश हो गए और अपना प्रयास
छोड़ दिया !!
लेकिन उन्ही मेंढकों के बीच एक छोटा सा मेंढक था,
जो बार -बार गिरने पर भी उसी जोश के साथ
ऊपर चढ़ने में लगा हुआ था !! वो लगातार ऊपर
की ओर बढ़ता रहा और अंततः वह खम्भे के ऊपर पहुच
गया और इस रेस का विजेता बना !!
उसकी जीत पर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ !!
सभी मेंढक उसे घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे -
"तुमने ये असंभव काम कैसे कर दिखाया, भला तुम्हे
अपना लक्ष्य प्राप्त करने की शक्ति कहाँ से
मिली, ज़रा हमें भी तो बताओ कि तुमने ये विजय
कैसे प्राप्त की ??"
तभी पीछे से एक आवाज़ आई - "अरे उससे क्या पूछते
हो , वो तो बहरा है !!"
अक्सर हमारे अन्दर अपना लक्ष्य प्राप्त करने
की काबीलियत होती है, पर हम अपने चारों तरफ
मौजूद नकारात्मकता की वजह से खुद को कम आंक
बैठते हैं और हमने जो बड़े-बड़े सपने देखे होते हैं उन्हें
पूरा किये बिना ही अपनी ज़िन्दगी गुजार देते
हैं !! आवश्यकता इस बात की है हम हमें कमजोर
बनाने वाली हर एक आवाज के प्रति बहरे और ऐसे
हर एक दृश्य के प्रति अंधे हो जाएं !!
और तब हमें
सफलता के शिखर पर पहुँचने से कोई नहीं रोक
पायेगा !!

Saturday 17 August 2013

18.08.13


एक पहुंचे हुए महात्मा थे। बड़ी संख्या में लोग उन्हें सुनने आते थे। एक दिन महात्मा जी ने सोचा कि उनके बाद भी धर्मसभा चलती रहे इसलिए क्यों न अपने एक शिष्य को इस विद्या में पारंगत किया जाए। उन्होंने एक शिष्य को इसके लिए प्रशिक्षित किया। अब शिष्य प्रवचन करने लगा। समय बीतता गया। सभा में एक सुंदर युवती आने लगी। वह उपदेश सुनने के साथ प्रार्थना, कीर्तन, नृत्य आदि समारोह में भी सहयोग देती। लोगों को उस युवती का युवक संन्यासी के प्रति लगाव खटकने लगा। एक दिन कुछ लोग महात्मा जी के पास आकर बोले, 'प्रभु, आपका शिष्य भ्रष्ट हो गया है।' महात्मा जी बोले, 'चलो हम स्वयं देखते हैं'। महात्मा जी आए, सभा आरंभ हुई। युवा संन्यासी ने उपदेश शुरू किया। युवती भी आई। उसने भी रोज की तरह सहयोग दिया। सभा के बाद महात्मा जी ने लोगों से पूछा, 'क्या युवक संन्यासी प्रतिदिन यही सब करता है। और कुछ तो नहीं करता?' लोगों ने कहा, 'बस यही सब करता है।' महात्मा जी ने फिर पूछा, 'क्या उसने तुम्हें गलत रास्ते पर चलने का उपदेश दिया? कुछ अधार्मिक करने को कहा?' सभी ने कहा, 'नहीं।' महात्मा जी बोले, 'तो फिर शिकायत क्या है?' कुछ धीमे स्वर उभरे कि 'इस युवती का इस संन्यासी के साथ मिलना-जुलना अनैतिक है'। महात्मा जी ने कहा, 'मुझे दुख है कि तुम्हारे ऊपर उपदेशों का कोई असर नहीं पड़ा। तुमने ये जानने की कोशिश नहीं की वो युवती है कौन। वह इस युवक की बहन है। चूंकि तुम सबकी नीयत ही गलत है इसलिए तुमने उन्हें गलत माना। सभी लज्जित हो गए।.

Friday 16 August 2013

17.08.13


बहुत समय पहले की बात है. एक बार एक गुरु जी गंगा किनारे स्थित किसी गाँव में 
अपने शिष्यों के साथ स्नान कर रहे थे .
तभी एक राहगीर आया और उनसे पूछा , ” महाराज, इस गाँव में कैसे लोग रहते हैं, 
दरअसल मैं अपने मौजूदा निवास स्थान से कहीं और जाना चाहता हूँ ?”
गुरु जी बोले, ” जहाँ तुम अभी रहते हो वहां किस प्रकार के लोग रहते हैं ?”
” मत पूछिए महाराज , वहां तो एक से एक कपटी, दुष्ट और बुरे लोग बसे हुए हैं.”, 
राहगीर बोला.
गुरु जी बोले, ” इस गाँव में भी बिलकुल उसी तरह के लोग रहते हैं…कपटी, दुष्ट, 
बुरे…” और इतना सुनकर राहगीर आगे बढ़ गया.
कुछ समय बाद एक दूसरा राहगीर वहां से गुजरा.उसने भी गुरु जी से वही प्रश्न 
पूछा , ”
मुझे किसी नयी जगह जाना है, क्या आप बता सकते हैं कि इस गाँव में कैसे लोग 
रहते हैं?”
” जहाँ तुम अभी निवास करते हो वहां किस प्रकार के लोग रहते हैं?”, गुरु जी ने 
इस राहगीर से भी वही प्रश्न पूछा.
” जी वहां तो बड़े सभ्य , सुलझे और अच्छे लोग रहते हैं.”, राहगीर बोला.
” तुम्हे बिलकुल उसी प्रकार के लोग यहाँ भी मिलेंगे…सभ्य, सुलझे और अच्छे ….”, 
गुरु जी ने अपनी बात पूर्ण की और दैनिक कार्यों में लग गए. पर उनके शिष्य ये 
सब देख रहे थे और राहगीर के जाते ही उन्होंने पूछा , ” क्षमा कीजियेगा गुरु जी 
पर आपने दोनों राहगीरों को एक ही स्थान के बारे में अलग-अलग बातें क्यों 
बतायी. गुरु जी गंभीरता से बोले, ” शिष्यों आमतौर पर हम चीजों को वैसे नहीं 
दखते जैसी वे हैं, बल्कि उन्हें हम ऐसे देखते हैं जैसे कि हम खुद हैं. हर जगह 
हर प्रकार के लोग होते हैं यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह के लोगों को 
देखना चाहते हैं.”
शिष्य उनके बात समझ चुके थे और आगे से उन्होंने जीवन में सिर्फ अच्छाइयों पर 
ही ध्यान केन्द्रित करने का निश्चय किया.


Thursday 15 August 2013

16.08.13


सलाह : 'यह या वह' ........

एक धनी व्यक्ति का बटुआ बाजार में गिर गया। उसे घर पहुंच कर इस बात का पता चला। बटुए में जरूरी कागजों के अलावा कई हजार रुपये भी थे। फौरन ही वो मंदिर गया और प्रार्थना करने लगा कि बटुआ मिलने पर प्रसाद चढ़ाउंगा, गरीबों को भोजन कराउंगा आदि। संयोग से वो बटुआ एक बेरोजगार युवक को मिला। बटुए पर उसके मालिक का नाम लिखा था। इसलिए उस युवक ने सेठ के घर पहुंच कर बटुआ उन्हें दे दिया। सेठ ने तुरंत बटुआ खोल कर देखा। उसमें सभी कागजात और रुपये यथावत थे।
सेठ ने प्रसन्न हो कर युवक की ईमानदारी की प्रशंसा की और उसे बतौर इनाम कुछ रुपये देने चाहे, जिन्हें लेने से युवक ने मना कर दिया। इस पर सेठ ने कहा, अच्छा कल फिर आना। युवक दूसरे दिन आया तो सेठ ने उसकी खूब खातिर की। युवक चला गया। युवक के जाने के बाद सेठ अपनी इस चतुराई पर बहुत प्रसन्न था कि वह तो उस युवक को सौ रुपये देना चाहता था। पर युवक बिना कुछ लिए सिर्फ खा -पी कर ही चला गया। उधर युवक के मन में इन सब का कोई प्रभाव नहीं था, क्योंकि उसके मन में न कोई लालसा थी और न ही बटुआ लौटाने के अलावा और कोई विकल्प ही था। सेठ बटुआ पाकर यह भूल गया कि उसने मंदिर में कुछ वचन भी दिए थे।
सेठ ने अपनी इस चतुराई का अपने मुनीम और सेठानी से जिक्र करते हुए कहा कि देखो वह युवक कितना मूर्ख निकला। हजारों का माल बिना कुछ लिए ही दे गया। सेठानी ने कहा, तुम उल्टा सोच रहे हो। वह युवक ईमानदार था। उसके पास तुम्हारा बटुआ लौटा देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। उसने बिना खोले ही बटुआ लौटा दिया। वह चाहता तो सब कुछ अपने पास ही रख लेता। तुम क्या करते? ईश्वर ने दोनों की परीक्षा ली। वो पास हो गया, तुम फेल। अवसर स्वयं तुम्हारे पास चल कर आया था, तुमने लालच के वश उसे लौटा दिया। अब अपनी गलती को सुधारो और जाओ उसे खोजो। उसके पास ईमानदारी की पूंजी है, जो तुम्हारे पास नहीं है। उसे काम पर रख लो।
सेठ तुरत ही अपने कर्मचारियों के साथ उस युवक की तलाश में निकल पड़ा। कुछ दिनों बाद वह युवक किसी और सेठ के यहां काम करता मिला। सेठ ने युवक की बहुत प्रशंसा की और बटुए वाली घटना सुनाई, तो उस सेठ ने बताया, उस दिन इसने मेरे सामने ही बटुआ उठाया था। मैं तभी अपने गार्ड को लेकर इसके पीछे गया। देखा कि यह तुम्हारे घर जा रहा है। तुम्हारे दरवाजे पर खड़े हो कर मैंने सब कुछ देखा व सुना। और फिर इसकी ईमानदारी से प्रभावित होकर इसे अपने यहां मुनीम रख लिया। इसकी ईमानदारी से मैं पूरी तरह निश्चिंत हूं।
बटुए वाला सेठ खाली हाथ लौट आया। पहले उसके पास कई विकल्प थे , उसने निर्णय लेने में देरी की। उस ने एक विश्वासी पात्र खो दिया। युवक के पास अपने सिद्धांत पर अटल रहने का नैतिक बल था। उसने बटुआ खोलने के विकल्प का प्रयोग ही नहीं किया। युवक को ईमानदारी का पुरस्कार मिल गया। दूसरे सेठ के पास निर्णय लेने की क्षमता थी। उसे एक उत्साही , सुयोग्य और ईमानदार मुनीम मिल गया।
एक बहुत बड़े विचारक सोरेन कीर्कगार्ड ने अपनी पुस्तक आइदर - और अर्थात ' यह या वह ' में लिखा है कि जिन वस्तुओं के विकल्प होते हैं , उन्हीं में देरी होती है। विकल्पों पर विचार करना गलत नहीं है। लेकिन विकल्पों पर ही विचार करते रहना गलत है। हम ' यह या वह ' के चक्कर में फंसे रह जाते हैं। किसी संत ने एक जगह लिखा है , विकल्पों में उलझ कर निर्णय पर पहुंचने में बहुत देर लगाने से लक्ष्य की प्राप्ति कठिन हो जाती है।
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Wednesday 14 August 2013

15.08.13


एक बार एक आदमी की 8 साल की बेटी बिमार
हो गई,लाख कोशिश के बाद भी वो नहीँ बची......
उसके बाद वो आदमी अपने दोस्तोँ और अपने घर
वालो से दूर हो के रहने लगा और बहुत
रोता था....,
एक दिन वो रात मे
सोया था तो सपना देखा कि वो स्वर्ग मेँ है और
नन्हीँ परियाँ हाथ मे जलती हुई मोमबत्तीँ लेकर
जुलूस निकाल रही थी लेकिन उसमे एक
लड़की की मोमबत्ती बुझी थी जब उस आदमी ने
देखा तो वो उसकी अपनी बेटी थी उसने उसे
दुलारा और
पूछा कि "तुम्हारी मोमबत्ती बुझी क्योँ है....?
.....तो वह बोली की इन लोगो ने बहुत कोशिश
की लेकिन आपके आँसुओ के कारण ये बुझ जाते
है.....
तभी अचानक उस आदमी की नीँद खुल गई और
उसे अपने सपने का मतलब समझ आया कि हमारे
आँसु और दुख न चाहते हुए भी हमारे
अपनो को दुख देते है......
उस दिन के बाद वो आदमी अपने मित्रोँ और घर
वालो के साथ रहने लगा.......
Moral-हमेँ अपने लिए नहीँ हमारे अपनो के लिए
खुश रहना चाहिए....

Tuesday 13 August 2013

14.08.13


एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में
शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद अपने
गांव लौटे। गांव के एक किसान ने उनसे
पूछा, पंडित जी आप हमें यह बताइए
कि पाप का गुरु कौन है? प्रश्न सुन कर पंडित
जी चकरा गए, क्योंकि भौतिक व आध्यात्मिक गुरु तो होते हैं, लेकिन पाप
का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और
अध्ययन के बाहर था। पंडित
जी को लगा कि उनका अध्ययन
अभी अधूरा है, इसलिए वे फिर
काशी लौटे। फिर अनेक गुरुओं से मिले। मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब
नहीं मिला। अचानक एक दिन
उनकी मुलाकात एक वेश्या से हो गई। उसने
पंडित जी से उनकी परेशानी का कारण
पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी।
वेश्या बोली, पंडित जी..! इसका उत्तर है तो बहुत ही आसान, लेकिन इसके लिए कुछ
दिन आपको मेरे पड़ोस में रहना होगा।
पंडित जी के हां कहने पर उसने अपने पास
ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी।
पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे, नियम- आचार और धर्म के कट्टर अनुयायी थे।
इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और
खाते। इस प्रकार से कुछ दिन बड़े आराम से
बीते, लेकिन सवाल का जवाब
अभी नहीं मिला।
एक दिन वेश्या बोली, पंडित जी...! आपको बहुत तकलीफ होती है
खाना बनाने में। यहां देखने वाला तो और
कोई है नहीं। आप कहें तो मैं नहा-धोकर
आपके लिए कुछ भोजन तैयार कर दिया करूं।
आप मुझे यह सेवा का मौका दें, तो मैं
दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी।
स्वर्ण मुद्रा का नाम सुन कर पंडित
जी को लोभ आ गया। साथ में पका- पकाया भोजन। अर्थात दोनों हाथों में
लड्डू। इस लोभ में पंडित जी अपना नियम-
व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए। पंडित जी ने हामी भर दी और वेश्या से
बोले, ठीक है, तुम्हारी जैसी इच्छा।
लेकिन इस बात का विशेष ध्यान
रखना कि कोई देखे नहीं तुम्हें
मेरी कोठी में आते-जाते हुए। वेश्या ने पहले
ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर पंडित जी के सामने परोस दिया। पर
ज्यों ही पंडित जी खाने को तत्पर हुए,
त्यों ही वेश्या ने उनके सामने से परोसी हुई
थाली खींच ली। इस पर पंडित जी क्रुद्ध
हो गए और बोले, यह क्या मजाक है?
वेश्या ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है।
यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर,किसी के हाथ का भी नहीं पीते थे,मगर
स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ
का बना खाना भी स्वीकार कर लिया।
यह लोभ ही पाप का गुरु है।

Monday 12 August 2013

13.08.13


एक बार गुरु गोविंद सिंह कहीं धर्म चर्चा कर रहे थे। श्रद्धालु भक्त उनकी धारा प्रवाह वाणी को मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। चर्चा समाप्त होने पर गुरू गोविंद सिंह को प्यास लगी। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- कोई पवित्र हाथों से मेरे पीने के लिए जल ले आए।

गुरू गोविंद सिंह जी का कहना था कि एक शिष्य उठा और तत्काल ही चांदी के गिलास में जल ले आया। जल से भरे गिलास को उसने गुरु गोविंद सिंह जी की ओर बढ़ाते हुए कहा-लीजिए गुरुदेव! गुरु गोविंद सिंह जी ने जल का गिलास हाथ में लेते हुए उस शिष्य की हथेली की ओर देखा और बोले- वत्स, तुम्हारे हाथ बड़े कोमल हैं। गुरु के इन वचनों को अपनी प्रशंसा समझते हुए शिष्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने बड़े गर्व से कहा- गुरुदेव, मेरे हाथ इसलिए कोमल हैं क्योंकि मुझे अपने घर कोई काम नहीं करना पड़ता। मेरे घर बहुत सारे नौकर-चाकर हैं। वही मेरा और मेरे पूरे परिवार का सब काम कर देते हैं।
गुरू गोविंद सिंह जी पानी के गिलास को अपने होठों से लगाने ही वाले थे कि उनका हाथ रुक गया। बड़े गंभीर स्वर में उन्होंने कहा- वत्स, जिस हाथ ने कभी कोई सेवा नहीं की, कभी कोई काम नहीं किया, मजदूरी से जो मजबूत नहीं हुआ और जिसकी हथेली में मेहनत करने से गांठ नहीं पड़ी, उस हाथ को पवित्र कैसे कहा जा सकता है। गुरुदेव कुछ देर रुके फिर बोले- पवित्रता तो सेवा और श्रम से प्राप्त होती है। इतना कह कर गुरुदेव ने पानी का गिलास नीचे रख दिया।

Thursday 8 August 2013

09.08.13


एक बेटा विदेश में धन कमाने गया, वहां से उसने माँ को अपनी दिनचर्या बताई...
सुबह उठकर घर की साफ़ सफाई,
फिर स्नान,
फिर पूजा पाठ,
फिर नाश्ता बनाना,
फिर घर के सभी दरवाजे अच्छे से बंद करके घर को सुरक्षित करके काम पर जाना,
आते समय सब्जी भाजी की खरीदारी,
घर आकर खाना बनाना,
खाकर बर्तन वगरे साफ़ करना...
फिर प्रभु का नाम लेकर सो जाना...
माँ ने पुछा: बेटा घर के बाथरूम भी तुम साफ़ करते हो..?
बेटे ने कहाँ- हाँ माँ,
माँ ने पुछा- बेटा झाड़ू-पोंछा, बाजार हाट भी सब तुम्ही को करना पड़ता हैं..?
बेटे ने कहाँ - हाँ माँ.,
माँ ने पूछा - बेटा घर की सुरक्षा, हिसाब किताब, फिर पूजा पाठ भी सब तू करता हैं..?
बेटे ने कहाँ- हाँ माँ..
सबकुछ मैं ही करता हूँ...

माँ ने कहा "बेटा तू तो अब"इंसान" हो गया रे,"
बेटे ने आश्चर्य से पूछा --"इंसान" बन गया मतलब...?
माँ ने कहा -- तू चारों वर्णों के काम बिना किसी संकोच के स्वयं करता हैं..
पंडित का भी..
शुद्र का भी..
वैश्य का भी
और क्षत्रिय के समान घर की रक्षा का काम भी तू ही करता हैं.

Wednesday 7 August 2013

08.08..13


वृंदावन में एक कथा प्रचलित है कि एक गरीब
ब्राह्मण बांके बिहारी का परम भक्त था।
एक बार उसने एक महाजन से कुछ रुपये उधार लिए।
हर महीने उसे थोड़ा- थोड़ा करके वह
चुकता करता था। जब अंतिम किस्त रह गई तब
महाजन ने उसे अदालती नोटिस
भिजवा दिया कि अभी तक उसने उधार
चुकता नहीं किया है, इसलिए पूरी रकम मय व्याज
वापस करे।
ब्राह्मण परेशान हो गया। महाजन के पास जा कर
उसने बहुत सफाई दी, अनुनय-विनय किया, लेकिन
महाजन अपने दावे से टस से मस नहीं हुआ।
मामला कोर्ट में पहुंचा।कोर्ट में भी ब्राह्मण ने जज
से वही बात कही,
मैंने सारा पैसा चुका दिया है। महाजन झूठ बोल
रहा है।
जज ने पूछा, कोई गवाह है जिसके सामने तुम
महाजन को पैसा देते थे।
कुछ सोच कर उसने कहा,
हां, मेरी तरफ से गवाही बांके बिहारी देंगे।
अदालत ने गवाह का पता पूछा तो ब्राह्मण ने
बताया, बांके बिहारी, वल्द वासुदेव, बांके
बिहारी मंदिर, वृंदावन।
उक्त पते पर सम्मन जारी कर दिया गया।
पुजारी ने सम्मन को मूर्ति के सामने रख कर कहा,
भगवन, आप को गवाही देने कचहरी जाना है।
गवाही के दिन सचमुच एक बूढ़ा आदमी जज के
सामने खड़ा हो कर बता गया कि पैसे देते समय मैं
साथ होता था और फलां- फलां तारीख को रकम
वापस की गई थी।
जज ने सेठ का बही- खाता देखातो गवाही सच
निकली। रकम दर्ज थी, नाम
फर्जी डाला गया था।जज ने ब्राह्मण को निर्दोष
करार दिया। लेकिन उसके मन में यह उथल पुथल
मची रही कि आखिर वह गवाह था कौन।
उसने ब्राह्मण से पूछा। ब्राह्मण ने बताया कि वह
तो सर्वत्र रहता है, गरीबों की मदद के लिए अपने
आप आता है।
इस घटना ने जज को इतना उद्वेलित किया कि वह
इस्तीफा देकर, घर-परिवार छोड़ कर फकीर बन
गया।
बहुत साल बाद वह वृंदावन लौट कर आया पागल
बाबा के नाम से।
आज भी वहां पागल बाबा का बनवाया हुआ
बिहारी जी का एक मंदिर है।...
बोल वृंदावन बिहारी लाल की जय

Tuesday 6 August 2013

07.08.13


बिहारी जी का एक भक्त उनके दर्शन करने वृंदावन गया - वहाँ उसे उनके दर्शन नहीं हुए। मंदिर में बड़ी भीड़ थी, लोग उससे चिल्ला कर कहते ‘‘अरे ! बिहारी जी सामने ही तो खड़े हैं, पर वह कहता है कि भाई। मेरे को तो नहीं दिख रहे।’’ वो मूर्ति को बिहारी जी मानने को तैयार ही नहीं था, उसके नेत्र प्यासे ही रह जाते इस तरह तीन दिन बीत गए पर उसको दर्शन नहीं हुए। उस भक्त ने ऐसा विचार किया कि सबको दर्शन होते हैं और मुझे नहीं होते, तो मैं बड़ा पापी हूं कि ठाकुर जी दर्शन नहीं देते, मेरे प्रेम में या मेरी साधना में कोई कमी है उनके दर्शन भी नहीं होते अत: इस जीवन की अपेक्षा यमुना जी में डूब जाना चाहिए। ऐसा विचार करके रात्रि के समय वह यमुना जी की तरफ चला, वहां यमुना जी के पास एक कुष्ठ रोगी सोया हुआ था।
उसको भगवान ने स्वप्न में कहा कि अभी यहां पर जो आदमी आएगा उसके तुम पैर पकड़ लेना, उसकी कृपा से तुम्हारा कुष्ठ दूर हो जाएगा। वह कुष्ठ रोगी उठ कर बैठ गया - जैसे ही वह भक्त वहां आया, कुष्ठ रोगी ने उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि ‘‘मेरा कुष्ठ दूर करो ।’’ भक्त बोला, ‘‘अरे ! मैं तो बड़ा पापी हूं, ठाकुर जी मुझे दर्शन भी नहीं देते। बहुत प्रयास किया,’’ परन्तु कुष्ठ रोगी ने उसको छोड़ा नहीं, अंत में कुष्ठ रोगी ने कहा कि अच्छा तुम इतना कह दो कि तुम्हारा कुष्ठ दूर हो जाए। वह बोला कि इतनी हमारे में योग्यता ही नहीं, कुष्ठ रोगी ने जब बहुत आग्रह किया तब उसने कह दिया कि ‘तुम्हारा कुष्ठ दूर हो जाए।’ ऐसा कहते ही क्षणमात्र में उसका कुष्ठ दूर हो गया। तब उसने स्वप्न की बात भक्त को सुना दी कि भगवान ने ही स्वप्न में मुझे ऐसा करने के लिए कहा था। यह सुनकर भक्त ने सोचा कि आज नहीं मरूंगा, मैं अपने बिहारी जी से फिर मिलने जाऊंगा । जैसे ही वो लौटने के लिए पीछे घूमा तो सीढियों पर ठाकुर जी खड़े थे। उसने ठाकुर जी ने पूछा, ‘‘महाराज ! पहले आपने दर्शन क्यों नहीं दिए ?’’ ठाकुर जी ने कहा कि तुमने उम्र भर मेरे सामने कोई मांग नहीं रखी, मुझ से कुछ चाहा नहीं, अत: मैं तुम्हें मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। अब तुमने कह दिया कि इसका कुष्ठ दूर कर दो तो अब मैं मुंह दिखाने लायक हो
गया। इसका क्या अर्थ हुआ ? यही कि जो कुछ भी नहीं चाहता, भगवान उसके दास हो जाते हैं। हनुमान जी ने भगवान का कार्य किया तो भगवान उनके दास हो गए। सेवा करने वाला बड़ा हो जाता है और सेवा कराने वाला छोटा हो जाता है परन्तु भगवान और उनके प्यारे भक्तों को छोटे होने में शर्म नहीं आती। वे जान करके छोटे होते हैं, छोटे बनने पर भी वास्तव में वे छोटे होते ही नहीं और उनमें बड़प्पन का अभिमान होता ही नहीं - मित्रो मैं थोड़े में अधिक कहना चाहता हूँ लेकिन प्रेमाश्रुओ के कारण शब्द इधर उधर भाग गए है . . . . . . प्रभु की कृपा सब पर बनी रहे

Monday 5 August 2013

06.08.13


एक राजा था, एक बार उसने भगवानकृष्ण जी का एक मंदिर बनवाया और पूजा के लिए एक पुजारी जी को लगा दिया.पुजारी जी बड़े भाव से बिहारी जी की सेवा करने लगे,
भगवान का श्रंगार करते, भोग लगाते, उन्हें सुलाते,ऐसा करते-करते पुजारी जी बूंढे हो गए,
राजा रोज एक फूलो की माला सेवक के हाथ से भेजा करता था,
पुजारी जी वह माला बिहारी जी को पहना देते थे,
जब राजा दर्शन करने जाते थे तो पुजारी जी वह माला बिहारी जी के गले से उतार कर राजा को पहना देते थे.ये हर दिन का नियम था.
एक दिन राजा किसी काम से मंदिर नहीं जा सके इसलिए उसने सेवक से कहा-तुम ये माला लेकर मंदिर जाओ और पुजारी जी से कहना आज हमें कुछ काम है इसलिए हम नही आ सकते वे हमारा इंतजार न करे.सेवक ने जाकर माला पुजारी जी को दे दी और सारी बात बता कर वापस आ गया .पुजारी जी ने माला बिहारी जी को पहना दी फ़िर वे सोचने लगे की आज बिहारीजी की मुझ पर बड़ी कृपा है.राजा तो आज आये नहीं क्यों न ये माला में पहन लू ,
इतना सोचकर पुजारी जी ने माला उतार कर स्वंय पहन ली .
इतने में सेवक ने बाहर से कहा-राजा आ रहे है.
पुजारे जी ने सोचा अगर राजा ने माला मेरे गलेमें देखली, तो मुझ पर बहुत नाराज होगे हड़बडा़हट में पुजारी जी ने अपने गले से माला उत्तार कर बिहारी जी को पहना दी,जैसे ही राजा आये तो माला उतार कर राजा को पहना दी.

राजा ने देखा माला में एक सफ़ेद बाल लगा है तो राजा समझ गए की पुजारी जी ने माला स्वंय पहन ली हैराजा को बहुत गुस्सा आया.
राजा ने पुजारी जी से पूँछा -पुजारी जी ये सफ़ेद बाल किसका है ?
पुजारी जी को लगा अगर में सच बोलूगा तो राजा सजा देगा इसलिये पुजारी जी ने कहा-
ये सफ़ेद बाल बिहारी जी का है.अब तो राजा को और भी गुस्सा आया कि ये पुजारी जी झूठ पर झूठ बोले जा रहा है.बिहारीजी के बाल भी कही सफ़ेद होते है.
राजा ने कहा - पुजारी जी अगर ये सफेद बाल बिहारी जी का है तो सुबह श्रंगार करते, समय में आँउगा और देखूँगा कि बिहारी जी के बाल सफ़ेद है या काले, अगर बिहारी जी के बाल काले निकले तो आपको फाँसी की सजा दी जायेगे.

इतना कह कर राजा चला गया .अब पुजारी जी रोने लगे और बिहारी जी से कहने लगे –
हेप्रभु अब आप ही बचाइए नहीं तो राजा मुझे सुबह होते ही फाँसी पर चढा देगा,
पुजारी जी की सारी रात रोने मेंनिकल गयी कब सुबह हो गयी उन्हें पता ही नहीं चला.
सुबह होते ही राजा आ गया और बोला पुजारी जी में स्वंय देखूगा.
इतना कहकर राजा ने जैसे ही मुकुट हटाया तो क्या देखता है बिहारी जी के सारे बाल सफ़ेद है.
राजा को लगा, पुजारी जी ने ऐसा किया है अब तो उसे और भी गुस्सा आया और उसने परीक्षा करने के लिए कि बाल असली है या नकली,जैसे ही एक बाल तोडा़ तो बिहारी जी के सिर से खून कि धार बहने लगी और बिहारी जी के श्री विग्रह से आवाज आई कि-
हे राजा तुमने आज तक मुझ केवल एक मूर्ति ही समझा इसलिए आज से में तुम्हारे लिए मूर्ति ही हूँ...पुजारी जी तो मुझे साक्षात भगवान् ही समझते हैं !!! ये उनकी श्रद्धा ही है की मेरे बाल मुझे सफेद करने पढ़े व् रक्त की धार भी बहानी पढ़ी तुझे समझाने के लिए !!
और पुजारी जी की सच्ची भक्ति से भगवान बड़े प्रसन्न हुए.

सार-- मंदिर में बैठे भगवान केवल एक पत्थर की मूर्ति नहीं है, उन्हें इसी भाव से देखो की वे साक्षात बिहारी जी है और वैसे ही उनकी सेवा करो.

"जय जय श्री राधे"

Sunday 4 August 2013

05.08.13


पुराने जमाने में एक राजा जंगल से गुजर रहा था, मार्ग में उसे अत्यन्त धीमी गति से रेंगता एक सांप दिखा । राजा ने यह सोचते हुए कि कहीं ये मेरे रथ से कुचलकर मर न जावे अपना रथ रुकवाकर अपने भाले से यथासंभव सुरक्षित तरीके से उस सांप को उठाकर वृक्ष की ओर उछाल दिया और आगे निकल गया । उस राजा को यह नहीं मालूम पडा कि वह सांप उसके उछाले गये वेग से किसी ऐसी कंटीली झाडी में जाकर फंस गया जहाँ से वह स्वयं के बूते बाहर नहीं निकल पाया और कई दिनों तक उस झाडी में ही लुहूलुहान अवस्था में फंसा रहकर भूखा-प्यासा तडप-तडपकर दर्दनाक तरीके से मृत्यु के मुख में समा गया ।

अगले जन्म में उसी राजा ने भीष्म के रुप में जन्म लिया और पूर्ण न्यायप्रिय और निष्पक्ष जीवन जीने के कारण भीष्म पितामह की पदवी प्राप्त की । किन्तु महाभारत के युद्ध में उन्हीं भीष्म पितामह को बाणों की ऐसी सेज मिली जिसमें तत्काल उनके प्राण भी नहीं निकले और कई दिनों तक बाणों की सेज पर पडे रहने के बाद उसी कंटीली चुभन को भोगते-भोगते मृत्यु के मुख में समाना पडा ।

शास्त्रोक्त मान्यता यह है कि उस सेज-शय्या पर पडे-पडे उनका ईश्वर से भी साक्षात्कार हुआ और जब उन्होंने ईश्वर से यह पूछा कि भगवन मैंने तो अपने जीवन में कोई गलत कार्य नहीं किया, न ही किसी गलत कार्य को होता 
देखकर अपनी ओर से उसे कोई समर्थन दिया फिर मेरा अंत इस प्रकार क्यों हो रहा है ? तब ईश्वर ने उसे याद दिलाया कि पूर्व-जन्म में अपने रथ-मार्ग में आने वाले एक सांप का जीवन बचाने की चाह में आपने उसे अपने भाले से उछालकर झाडियों की ओर फेंका था जहाँ कंटीली झाडियों में फंसकर उस सांप की ऐसी ही मृत्यु हुई थी और ये उसीका परिणाम है जो इस रुप में आपको भोगना पड रहा है ।

तो कथासार यही है कि जब भी हम कोई भला कार्य़ कर रहे हों तो वहाँ भी यह ध्यान अवश्य रखने का प्रयास करें कि नेपथ्य में इसके कारण कुछ ऐसे गलत को तो मेरे द्वारा समर्थन नहीं पहुँच रहा है जो नहीं पहुंचना चाहिये ।

Saturday 3 August 2013

04.08.13


नदी के तट पर एक संत रहते थे, किसी कंपनी का एक अधिकारी संत के पास पहुंचा। संत नदी के किनारे रेत पर टहल रहे थे - अधिकारी बोला - मैं सिगरेट छोड़ना चाहता हूं, लेकिन छोड़ ही नहीं पाता। कभी दफ्तर में मीटिंग लंबी हो जाती है, तो बिना सिगरेट बुरा हाल हो जाता है। मैं क्या करूं ? संत मुस्कुराए, बोले - जब मैं बच्चा था, तो मुझे रंग-बिरंगे पत्थर बहुत आकर्षित करते थे। कहीं भी कोई पत्थर मिल जाता, तो उसे छोड़ता नहीं था। एक दिन मैं अपने दोस्तों के साथ नदी के तट पर आ गया, यहां अनगिनत रंग-बिरंगे पत्थरों को देखकर मैं खुशी से पागल हो गया। उन्हें समेटने लगा, अपने थैले में मैंने इतने पत्थर भर लिए कि मैं उन्हें उठा भी नहीं सकता था। लेकिन मेरे दोस्तों को पत्थरों से कोई मतलब नहीं था, वे पत्थरों को छोड़कर चले गए। उस दिन मुझे महसूस हो रहा था कि मेरे दोस्त कितने त्यागी हैं। लेकिन पत्थर सिर्फ मेरे लिए मूल्यवान थे, उनके लिए फालतू। बड़े होने पर समझ में आया कि पत्थरों का कोई मूल्य नहीं। अब मैं परमात्मा का चिंतन नहीं छोड़ पा रहा हूं, अधिकारी बोला, मैं कुछ समझा नहीं। संत बोले, जिस दिन तुम नशे को अर्थहीन समझने लगोगे, उसी दिन सिगरेट अपने आप छूट जाएगी । सार इतना सा ही है कि "बुरी चीजों को छोड़ना तब आसान हो जाता है, जब उन्हें अपने लिए अर्थहीन मान लिया जाए" . . . . . . . . . सुप्रभात मित्रो . . . . . . . . जय हो द्वारिकाधीश की

Friday 2 August 2013

03.08.13


श्री हनुमान-स्तुति

श्री हनुमान जी की स्तुति जिसमें उनके बारह नामों का उल्लेख मिलता है इस प्रकार है :

हनुमानद्द्रजनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः।

... रामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः॥

उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः।

लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा॥

एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः। स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत्‌॥

तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्‌।

(आनंद रामायण 8/3/8-11)

उनका एक नाम तो हनुमान है ही, दूसरा अंजनी सूनु, तीसरा वायुपुत्र, चौथा महाबल, पांचवां रामेष्ट (राम जी के प्रिय), छठा फाल्गुनसख (अर्जुन के मित्र), सातवां पिंगाक्ष (भूरे नेत्र वाले) आठवां अमितविक्रम, नौवां उदधिक्रमण (समुद्र को लांघने वाले), दसवां सीताशोकविनाशन (सीताजी के शोक को नाश करने वाले), ग्यारहवां लक्ष्मणप्राणदाता (लक्ष्मण को संजीवनी बूटी द्वारा जीवित करने वाले) और बारहवां नाम है- दशग्रीवदर्पहा (रावण के घमंड को चूर करने वाले) ये बारह नाम श्री हनुमानजी के गुणों के द्योतक हैं। श्रीराम और सीता के प्रति जो सेवा कार्य उनके द्वारा हुए हैं, ये सभी नाम उनके परिचायक हैं और यही श्री हनुमान की स्तुति है। इन नामों का जो रात्रि में सोने के समय या प्रातःकाल उठने पर अथवा यात्रारम्भ के समय पाठ करता है, उस व्यक्ति के सभी भय दूर हो जाते हैं।

Thursday 1 August 2013

02.08.13


श्रीकृष्ण ने भी अपने जीवन में ऐसा कौन सा दुःख है जो नहीं देखा ! दुष्टों के
कारागृह में जन्म हुआ, जन्म के तुरन्त बाद उस सुकोमल अवस्था में यमुनाजी की
भयंकर बाढ़ वह उफनती लहरों के बीच टोकरी में छिपाकर पराये घर में ले जाकर रख
दिया गया। राजघराने के लड़के होने के बावजूद गौएँ चराकर रहना पड़ा, चोरी करके
मक्खन-मिश्री खाना पड़ा। कभी पूतना राक्षसी पयःपान में छुपा कर जहर पिलाने आ
गई तो कभी कोई दैत्य छकड़े से दबाने या आँधी में उड़ाने चला आया। कभी बछड़े
में से राक्षस निकल आया तो कभी विशाल गोवर्धन पर्वत को हाथ पर उठाकर खड़े रहना
पड़ा। अपने सगे मामा कंस के कई षड्यंत्रों का सामना करना पड़ा और अंत में उसे
अपने हाथों से ही मारना पड़ा। उनके माँ-बाप को भी जेल के दारूण सुख सहने पड़े।
जरासन्ध से युद्ध के दौरान जब श्रीकृष्ण द्वारका की ओर भागे तो पाँव में न तो
पादुका थी और न ही सिर पर पगड़ी थी। केवल पीताम्बर ओढ़े नंगे पाँव भाग-भाग कर

पहाड़ों में छिपते-छिपाते, सुरक्षित निवास के लिए कई स्थानों को ढूँढते-ढूँढते
अन्त में समुद्र के बीच में जाकर बस्ती बसाना पड़ा। उनके पारिवारिक जीवन में
भी कई विघ्न-बाधाएँ आती रहीं। बड़े भाई बलरामजी को मणि को लेकर श्रीकृष्ण पर
अविश्वास हो गया था। पत्नियों में भी आये दिन ईर्ष्या-जलन व झगड़े-टंटे चलते
ही रहते थे। बाल-बच्चों एवं पौत्रों में से कोई भी आज्ञाकारी नहीं निकला। एक
ओर, जहाँ श्री कृष्ण साधु-संतों का इतना आदर-सत्कार किया करते थे वहीं पर उनके
पुत्र-पौत्र संत-पुरुषों का मखौल उड़ाया करते थे। और भी अनेकाअनेक विकट
परिस्थितियाँ उनके कदम-कदम पर आती रहीं लेकिन श्रीकृष्ण हरदम मुस्कराते रहे और
प्रतिकूलताओं का सदुपयोग करने की कला अपने भक्तों को सिखलाते गये।

मुस्कुराकर गम का जहर जिनको पीना आ गया।

यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया..